Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 260
________________ कर्मविक दिगम्बर साहित्य में भी पदश्रुत में पद शब्द का सांकेतिक अर्थ चिगया है। आचारांग आदि का प्रमाण ऐसे ही पदों से उसमें भी माना गया है। परन्तु समें य विशेषता देखी जाती है कि जहाँ श्वेताम्बर साहित्य में पद के प्रमाण के सम्बन्ध में सब आचार्य आम्नाय का विच्छेद दिखाते हैं, वहाँ दिगम्बर साहित्य में पद का प्रमाण स्पष्ट लिखा पाया जाता है । वहाँ १६३४ करोड़, ८३ लाख, ७ हजार अक्षरों का एक पद माना है।' जो बत्तीस अक्षरों का एक श्लोक मानने पर उतने अक्षरों के २१.०८,८४,६२॥ प्रमाण होते हैं । इस प्रमाण में तथा श्वेताम्बर साहित्य में कहीं-कहीं बताये गये पद प्रमाण में सम्बन्ध में एकवाक्यता ही प्रतीत होती है । १८० मन:पर्ययज्ञान का ज्ञेय (विषय) - इस सम्बन्ध में दो प्रकार का उल्लेख पाया जाता है। पहले में लिखा है कि मन:पर्ययज्ञानी मनःपर्ययज्ञान से दूसरों के मन में अवस्थित पदार्थ चिन्यमान पदार्थको जानता है और दूसरे उल्लेख में कहा है कि मन:पर्ययज्ञान से चिन्त्यमान वस्तु का ज्ञान नहीं होता, किन्तु विचार करने के समय मन की जो आकृतियाँ होती हैं, उन्हीं का ज्ञान होता है और चिन्त्यमान वस्तु का ज्ञान पीछे से अनुमान द्वारा होता है। पहला उल्लेख दिगम्बर साहित्य' का है और दूसरा उल्लेख श्वेताम्बर साहित्य का है। > १. गोम्मटमार जीवकांड, गाथा ३३५ | २. सर्वार्थसिद्धि टीका पू० १२४, राजनात्तिक ० ४= गोम्मटसार, जीवकांड, 1 ० ४३७-४४७ | " ३. तत्त्वार्थ० अ० १ सय २४ टीका । आवश्यक गा० ७६ की टीका । विशेषावश्यकभाष्य पु० ३१०, गा० १३६१४ । लोकप्रकाश सं० ३ इलोक ८४१ मे । :

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