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प्रथम फर्मग्रन्थ
१७६ इसके साथ ही कतिपय कथनों में भिन्नताएं भी हैं, जिनका संक्षेप में दिग्दर्शन कराया जा रहा है ।
प्रकृतिभेद - इसमें प्रकृति शब्द के दो अर्थ किये गये हैं- (१) स्वभाव और (२) समुदाय । श्वेताम्बर कर्म साहित्य में उक्त दोनों ही अर्थ पाये जाते हैं परन्तु दिगम्बर साहित्य में प्रकृति शब्द का स्वभाव अर्थ ही उल्लिखित मिलता है। जैसे–'प्रकृति स्वभावः', 'प्रकृतिः स्वभाव इत्यनान्तरम्'". 'पयडी सीले सहावो'' इत्यादि ।
पक्ष का प्रमाण-जिस शब्द के अन्त में विभक्ति आई हो या जितने भाग में अर्थ की समाप्ति हो, उसे पद कहते हैं। लेकिन पदश्रुत में पद का मतलब ऐसे पद से नहीं है, सांकेतिक पद से है। आचारांग आदि आगमों का प्रमाण ऐसे ही पदों में गिना जाता है । कितने प्रलोकों का यह सांकेतिक पद माना जाता है, तादृश संप्रदाय के नष्ट हो जाने से इसका पता नहीं चलता है, यह कहीं टीका में लिखा है और कहीं यह भी लिखा मिलता है कि प्रायः ५१,०८,८६,८४० श्लोकों का एक पद होता है। १. (क) प्रकृतिस्तु स्वभावः स्याद ज्ञानवृत्यादि कमगाम् । यथा ज्ञानामावनादिः स्थितिः कालविनिश्चयः ।।
__ -लोकप्रकाश, सर्ग १० इमोक १३७ (स) शिवं श्रवनस्म ठिइ पाएस बधो पाएमगहणं च ।
तणरसों अणुभागो तस्ससमुदायो पगइ बन्धो ।। यहां यह ज्ञातव्य है कि स्वभाव अर्थ में अनुभागबन्ध का मतलब कर्म की फलजन कशक्ति को शु माशुभता तथा तीनना-मदता से ही है, परन्तु समुदाय अर्थ में अनुभागबन्ध में कर्म की फलजनक शक्ति और उसकी शुभाशुभता
तया तीव्रता-मंदता इतना अर्थ विविक्षित है। २. तत्वार्थसूब अ० ८, सूत्र ३, सर्वार्थसिद्धि तथा राजवात्तिक टीका । ३. गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, गा. ३