Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 257
________________ प्रथम कर्मग्रन्य १७४ सुयअमदेणं लाभअमरेण इसरियअमदेणं उच्चागोय कम्मा सरीर जाव पयोगबन्धे। व्यः० प्र० ० ८, उ० ९, सू. ३५१ जाति, कुल, बल, रूप, तप, विद्या, लाभ और एश्वर्य का घमण्ड न करने से उच्च गोत्रकर्म के शरीर का प्रयोगबन्ध होता है। तत्त्वार्थसूत्र का नीचगोत्र और उच्चगोत्र बन्ध सम्बन्धी पाठ परात्मनिन्दाप्रशंसः सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य । तद्विपर्ययो नोवृत्यिनृत्से को चोनरस्य । • ६, सू० २५, २६ (८) अन्तराय कर्म दाणंतराएणं लाभंतराएणं भोगतराएणं उवभोगंतराएणं वीरयंतराएणं अंतराइयकम्मा सरीरप्पयोगबन्धे । - पा० प्र०. श. ८, ३. १, स० ३५१ दान, लाभ, भोग, उपभोग और बीर्य में विघ्न करने से अन्तराय कर्म के शरीर का प्रयोगबन्ध होता है। तत्त्वार्थसूत्र का सम्बन्धित पाठ विघ्नकरणमन्तरायस्य । - अ० ६, सू० २७ विशेष- यहाँ आगम सूत्रों और तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों द्वारा आठ कर्मों के बन्ध के विशेष कारणों का उल्लेख किया गया है। इन पाठों में तथा कर्मग्रन्थों में प्रदर्शित कारणों में समानता और असमानता प्रतीत होने का कारण यह है कि कारणोल्लेख में मुख्यरूप से आगम मूत्रों का. कहीं उनके आशय का अवलम्बन लेकर ग्रन्थकारों ने अपनीअपनी भाषा-शैली, वाक्यविन्यास, प्रयत्नलाघव आदि द्वारा बन्ध के कारणों को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है । इसे कथन-शैली की भिन्नता समझा जाय । लेकिन मूल उद्देश्य और आशय तो आगमों के आधार से कर्मों के बन्धकारणों का उल्लेख करना ही है । अतः भाषा-शैली का भेद प्रतीत होने पर भी उनमें मालिक भेद नहीं समझना चाहिए।

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