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प्रश्रम कर्मग्रन्थ
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अर्थ-शुभ नामकर्म का शरीर किस प्रकार प्राप्त होता है ?
हे गौतम ! काय की सरलता से, मन की सरलता मे, वचन की सरलता से तथा अन्यथा प्रवृत्ति न करने से शुभ नामकर्म के शरीर का प्रयोगबन्ध होता है।
अशुभ नामक्रम के शरीर का प्रयोगबन्ध किस प्रकार होता है ?
इसके विपरीत काय, मन तथा वचन की कुटिलता से तथा अन्यथा प्रवृत्ति करने से अशुभ नामकर्म के शरीर का प्रयोगबन्ध होता है । तस्वार्थसूत्र का पाठ योगवऋता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः । तद्विपरीतं शुभम्य ।
--अ० ६. सू. २२, २३ नामकर्म में तीर्थंकर नाम का विशिष्ट स्थान है । अतः उसके बन्ध के भी विशिष्ट कारण हैं। वे विशेष कारण क्रमशः इस प्रकार वर्णित किये गये हैं।
अरहंत-सिद्ध-पवयम-गुरु-थेर-बहुस्सुए सवस्सोसु । वच्छलया य तेंसि अभिक्खणाणोवओगे य ॥१॥ दसण विणए आवस्सए य सोलभ्य ए निरइयारं। खण लव तवच्चियाए वेयावच्चे समाही य ॥२॥ अपुठवणाणगहणे सुयभत्तो पवयणे पभाषणया । एएहिं कारणेहि हित्ययरतं लहइ जीवो ॥३॥
-- हाताधर्म० अ० ८, सू० ६४ अर्थ-अहंद्भक्ति, सिद्धभक्ति, प्रवचनभक्ति, स्थविर (आचार्य)भक्ति, बहुश्रुतभक्ति, तपस्वी-वत्सलता, निरन्तर ज्ञान में उपयोग रखना, दर्शन का विशुद्ध रखना, विनयसहित होना, आवश्यकों का