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प्रथम कर्मग्रन्थ
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मायाहि मिक्वाहि जे नरा गिहिसुब्बा । उति माणुस जोणि कम्मसचाहु पाणिणो ।
-उसराध्ययन, अ... | २० अर्य-चार प्रकार से जीव मनुष्यायु का बन्ध करते हैं- उत्तम स्वभाव होने से. स्वभाव में विनय होने से, स्वभाव में दया होने मे, स्वभाव में ईर्ष्याभाव न होने से ।
जो प्राणी विविध शिक्षाओं द्वारा उत्तम व्रत ग्रहण करते हैं, वे प्राणी शुभकर्मों के फल में मनुष्ययोनि को प्राप्त करते हैं। तत्त्वार्यसूत्र का पाठ अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य । स्वभाव मार्दवञ्च ।
-अ. ६. मृ. १७, १८ देवति के बन्ध के कारण
च उहि ठाणेहिं जीवा देवाउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा-सरागसंजमेणं, संजमासजमेणं, बालनवोकम्मेणं, अकामणिज्जराए ।
– स्थानांग, स्थान ४, उ. ४, सू० ३७३ अर्थ - चार प्रकार में जीव देवायु का बन्ध करते हैं. सरागसंयम से, संयमासंयम मो, बालतप से और अकामनिर्जरा से ।।
वेमाणियावि" जइ सम्मदिट्ठीपज्जनसंखेज्जावासाउयकम्मभूमिज गब्भन्त्रक्क तियमणुस्सेहितो उबदज्जति कि संजतसम्म हिट्ठीहितो असंजयसम्मपिट्ठीपज्जत्तएहितो संजयासंजयसम्मदिवीपज्जत्त संखज्जाहितो उववज्जति ? गोयमा ! तीहितोवि उववज्जति एवं जाव अच्चुगो कम्पो।
- प्रज्ञापना, पद ६ ___अर्थ-यदि वैमानिक देवों में सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यात वर्ष की आय वाले, कर्मभूमिज, गर्भज मनुष्य उत्पन्न हों तो क्या संयत सम्य