Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

Previous | Next

Page 256
________________ १७६ कर्मविपर पालन करना, अतिचाररहित शील और व्रतों का पालन करना, संसार को क्षणभंगुर समझना, शक्ति अनुसार तप करना, त्याग करना, व्यावृत्य करना समाधि करना अपूर्व जान को ग्रहण करना, शास्त्र में भक्ति होना, प्रवचन में भक्ति होना और प्रभावना करना - इन कारणों से जीव तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध करता है । तत्त्वसूत्र का पाठ दर्शन विशुद्धि विनयसंपन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगो शक्तितस्त्यागतप सोसा घुसमाधिवैयात्यकरणमदाचार्य बहुश्रुत प्रवचनभक्ति रावण्य का परिहाणि मार्गप्रभावना तीर्थंकरत्वस्य | (७) गोत्रकर्म गोत्रकर्म के नीच और उच्च ये दो भेद है। उनमें से पहले नीचगोत्र के बन्धकारणों का अनन्तर उच्चगोत्र के बन्धकारणों का निर्देश करते हैं - I नोचगोत्र C अर्थ - जाति के मद से कुल के r प्रवचनवत्सलत्वमिति - अ० ६, सू० २४ जातिमदेणं कुलम देणं बलमदेणं जाव इस्सरियम देणं णीयागोय कम्मा सरीर जाव पयोग बन्धे । - व्याख्या००८, उ० ६ सू० ३५१ r मद से बल के मद से तथा अन्य नीच गोत्रकर्म के शरीर का प्रयोगबन्ध मदों सहित ऐश्वर्य के मद से होता है। उच्चगोत्र जाति मदेणं कुलअम देणं बलअभदेणं रूवअमदेणं तवअमदेणं

Loading...

Page Navigation
1 ... 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271