Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
प्रथम कर्मग्रन्थ उनमें भी वहीं, जो कम-से-कम सम्यग्दृष्टि हैं। अर्थात प्रत आदि का पालन करने में असमर्थ होते हुए भी जो मनुष्य या तिथंच सम्यग्दर्शन सहित हैं, वे देवायु का बन्ध्र करते हैं। इसी आशय को स्पष्ट करने के लिए गाथा में अविरत पद दिया है। अविरत के साथ हो जो आदि शब्द दिया है, उसका आशय यह है कि देशाविरत, सरागसंयमी भी देवायु का बन्ध करने की सामर्थ्य बाले हैं। सारांश यह है कि अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत मनुष्य और नियंचों तथा सरागसंयमी मनुष्यों के देवायु का बन्ध हो सकता है । ___ बालतपस्वी, अर्थात् आत्मस्वरूप को न समझकर अज्ञानपूर्वक कायक्लेश आदि तप करने वाले मिथ्यादृष्टि भी देवाय का बन्ध कर सकते हैं। ____ अज्ञान से भूख-प्यास, मर्दी-गरमी आदि को सहन करना, स्त्री की अप्राप्ति मे शील को धारण करना इत्यादि कारणों से जो कर्म की निर्जरा होती है, उसे अकामनिर्जरा कहते हैं। अकामनिर्जरा अर्थात् इच्छा के न होते हुए अनायास ही जिसके कर्म की निर्जरा हुई है, ऐसा जीव देवायु का बन्ध कर सकता है।
देवायु के बन्धकारणों को बतलाने के बाद अब नामकर्म की शुभ और अशुभ प्रकृतियों के बन्ध के कारणों को बतलाते हैं । __ नामकर्म की शुभ प्रकृतियों का बन्ध वे जीव करते हैं, जो सरल अर्थात् छल-कपट रहित हैं, जिनके मन, वचन, काया की प्रवृत्ति में एकरूपता है. गौरबरहित हैं, अर्थात् जिनको अपनी ऋद्धि, वैभव, शरीर. सौन्दर्य आदि का अभिमान नहीं है, वे जीव नामकर्म की शुभ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं।
गौरव के तीन प्रकार हैं-ऋद्धिगौरव, रसगौरव, सातगौरव ।