Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रथम कर्मग्रन्थ
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से, ज्ञान में व्यर्थ का वाद-विवाद करने से ज्ञानावरणीय कर्म का आस्रव होता है । इन उपर्युक्त कार्यों में ज्ञान के स्थान पर दर्शन व दर्शनी (साधु) का नाम जोड़कर कार्य करने से दर्शनावरणीय कर्म का आस्रव होता है ।
इस सम्बन्ध में आचार्य श्री उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में निम्नलिखित पाठ दिया है
तत्प्रदोषनिवमात्सर्यान्तरायासादनोपयाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ।
- ३० ६ ० १०
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(३) वेदनीय
वेदनीय कर्म के दो भेद हैं- सातावेदनीय और असातावेदनीय | उनमें से प्रथम असातावेदनीय का बन्धसम्बन्धी पाठ यह है
परदुक्खणयाए परसोयणयाए परजूरणयाए परतिपाणयाए परविट्टयाए परपरियावणयाए बहूणं पाणाणं जाव सत्ताणं दुक्खणयाए सोययाए जाब परियावणयाए एवं खलु गोयमा ! जीवाणं अस्सा यावेयगिज्जा कम्मा किज्जन्ते । - व्याख्यत्प्रज्ञप्ति, श० ७, ३० ६, सू० २०७ अर्थ - हे गौतम! दूसरों को दुःख देने से दूसरे को शोक उत्पन्न करने से, दूसरे को झुराने से, दूसरे को रुलाने से, दूसरों को पीटने से, दुःख दूसरों को परिताप देने से बहुत से प्राणियों और जीवों को से, शोक उत्पन्न कराने आदि परिताप देने से जीव असातावेदनीय कर्म का आस्रव करते हैं ।
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देन
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इस सम्बन्धी तत्त्वार्थसूत्र का पाठ इस प्रकार है
दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्म परोभयस्थान्यसद्वेदस्य |
-अ० ६, सू० ११