Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 250
________________ १७० कर्मविपाक सातादेवनीय सम्बन्धी पाठ पाणाणुकंपाए भुयाणुकंपाए जीवाणुकंपाए सत्ताणुकंपाए बहूणं पाणाणं जाप सत्ताण अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपिट्टणयाए अपरियावणयाए एवं खलु गोयमा ! जीवाणं सायावेयणिज्जा कम्मा किर्जति । -भगवती, श० ७, उ० ६. सू० २८६ अर्थ-हे गौतम ! प्राणों पर अनुकम्पा करने से, प्राणियों पर लगा करने से, जीवों पर दया करने से, सत्त्वों पर दया करने से, बहुत-से प्राणियों को दुःख न देने में, शोक न कराने से, न झुराने से, न सताने से, न पीटने से, परिताप न देने से जीव सातावेदनीय कर्म का आस्रव सत्वार्थसूत्रगत पाठ भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमितिसवेद्यस्य । -०६, सू० १२ (४) मोहनीय कर्म __ मोहनीय कर्म के दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ये दो भेद हैं। उनमें से पहले दर्शनमोहनीय के कारणों को कहते हैं पंचहि ठाणेहिं जीवा दुल्लभबोयित्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा - अरहताणं अवन्न वदमाणे, अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स अवन्न वदमाणे, आयरियउवझायाण अवन वदमाणे, चाउवण्णस्स संघस्स अवण्णं बदभाणे, विवक्कतवबंभचेराणं देवाणं अवन्न वदमाणे । - स्यानांग, स्थान ५, उ० २, सू० ४२६ अर्थ-पांच स्थानों के द्वारा जीव दुर्लभवोधि (दर्शनमोहनीय) कर्म का उपार्जन करते हैं--अर्हन्त का अवर्णवाद करने से, अर्हन्त के

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