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१५.
कर्मविपाक (क) धन-सम्पत्ति, श्वर्य को ऋद्धि कहते हैं। उससे अपने को महत्त्वशाली समझना ऋद्धि-गौरत्र है।
(स) मधुर. अम्, आदि प्रों में अपना मौरक रूपमा रसगौरव कहलाता है।
(ग) शरीर के स्वास्थ्य, सौन्दर्य आदि का अभिमान करना सातगारव कहलाता है।
इसी प्रकार पाप से डरने वाला; क्षमा, दया, मार्दव आदि गुणों से युक्त जीव शुभ नामकर्म को बांधता है। ___ जिन कार्यों में नामकर्म की शुभप्रकृतियों का बन्ध होता है, उनके विरुद्ध कार्य करने वाला जीव अशुभ प्रकृतियों का बन्ध करता है । जैसे माया, छल-कपट, अपनी प्रशंसा और दूसरे की निन्दा करना, झठी साक्षी देना, शपथ लेना, देवद्रव्य, सार्वजनिक सम्पत्ति आदि का दुरुपयोग करना, अपहरण करना आदि दुष्ट प्रवृत्तियों से नामकर्म की अशुभ प्रकृतियों का बन्ध होता है । सरांश यह है कि अनैतिक आचारविचार मे नरकगति, अयश कीति, एकेन्द्रिय जाति आदि अशुभ प्रकृतियों का बन्ध होता है। गोत्रकर्म के बन्धहेतु
गुणपेही मयरहिओ अश्मयण झावणारई निच्चं । पकुणइ जिणाइ भत्तो उच्चं नीयं इयरहा उ॥६॥ गाथार्थ-गुणों को देखने वाला, निरभिमानी, अध्ययन-अध्यापन में रुचि रखने वाला और जिन भगवान् का भक्त जीव उच्चगोत्र का तथा इससे विपरीत वृत्ति वाला जीव नीचगोत्र का बन्ध करता है। विशेषार्थ-गोत्रकर्म के दो भेद हैं—(१) उच्चगोत्र और (२)