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कर्मविगक
अन्तरायकर्म का बन्ध उन जीवों को होता है जो जिन भगवान की पूजा में विघ्न डालते हैं, अर्थात् जितेन्द्र देव का अवर्णवाद करने से, उनके द्वारा प्ररूपित धर्म की निन्दा करने से, गुणों का संकीर्तन करने में रुकावट डालने मे, आत्मकल्याण के साधक ब्रत, तप, संयम की ओर अग्रसर होने वालों को निरुत्साहित करने से तथा इसी प्रकार के अन्यान्य कार्य करने मे अन्तरायकर्म का बन्न होता है। साथ ही हिंसा, झूठ, चोरी. मथन, परिग्रहरूप पापों को स्वयं करने, दुसरों से कराने और करते देख प्रसन्न, अनुमोदना करने से, दानादि कार्यों में विघ्न डालने आदि से अन्त रायकर्म का बन्ध होता है।
इस प्रकार कर्मों के स्वरूप, भेदों, बन्धहेतुओं का सामान्य रूप से कथन करने वाला श्री देवेन्द्र मूरि विरचित 'कर्मविपाक' नामक ग्रन्थ समाप्त हुआ।
॥ इति कर्मविपाक' नामक प्रथम कर्मग्रन्थ ॥