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कर्मविपाक
के द्वारा ज्ञानादि के प्रति उपेक्षाभाव दर्शानेवाले कार्यों को करने से ज्ञानावरण कर्म का बन्ध होता है ।
ऊपर जो ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के साधनों के बारे में अनिष्ट आचरण करना आदि कारण बतलाये गये हैं, उन्हीं को दर्शन, दर्शनी - साधु, और दर्शन के साधनों के बारे में करने से दर्शनावरण कर्म का बन्ध होता है ।
ज्ञान और दर्शन आत्मा के गुण हैं । इसलिए ज्ञान और ज्ञान के साधनों, दर्शन और दर्शन के साधनों के प्रति किंचिन्मात्र भी असावधानी व उपेक्षा दिखाना अपना ही घात करना है। यहाँ उन कार्यों को बताया है जो उन गुणों के होने के लिए करने नहीं हैं। इसी प्रकार के अन्य विघातक कार्यों का की इन्हीं में समावेश कर लेना चाहिए ।
वनीय कर्म के बन्धहेतु
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गुरुभत्तितिकरुणा-वयजोगक सायविजय दाणजुओ । वधम्माई अज्जइ सायमसायं विवज्जय ।।५५|| गाथार्थ -गुरु-भक्ति, क्षमा, करुणा, व्रत, योग, कषायविजय, दान करने और धर्म में स्थिर रहने से सातावेदनीय का और इसके विपरीत प्रवृत्ति करने से असातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है ।
विशेषार्थ - गाथा में वेदनीय कर्म के दोनों भेद सातावेदनीय और असातावेदनीय कर्म के बन्ध-कारणों को बतलाया है।
साता का अर्थ है सुख और अमाता का अर्थ है दुःख । जिस कर्म के उदय से सुख हो, वह सातावेदनीय और जिस कर्म के उदय से दुःख हो, वह असातावेदनीय है । सातावेदनीय पुण्य और असातावेदनीय