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कर्मविपाक
व्यवस्था करने में प्रमाद करना, दूसरा दुरुपयोग करता हो तो सामर्थ्य होते हुए भी मौन रहना देवद्रव्यहरण कहलाता है। इसी प्रकार ज्ञानद्रव्यगाह व उनके सम्परों आदि जर्मस्थानों के निमित्त द्रव्य का हरण भी समझ लेना चाहिए।
(४) जिन भगवान, निरावरण केवलज्ञानी की निन्दा करना, सर्व दोषों से उन्मुक्त होने पर भी उनमें दोष बताना जैसे कि 'दुनिया में कोई सर्वज्ञ हो ही नहीं सकता है ।' समवशरण में छत्र, चामर आदि का उपयोग करने से उनको वीतराग न कहना, जिननिन्दा कहलाती है ।
(५) पंच महाव्रतधारी रत्नत्रय से विभूषित साधु मुनिराजों को निन्दा करना, असद्द्भूत दोषों का आरोप लगाना साधु की निन्दा है ।
(६) ज्ञान-दर्शन- चारितसम्पन्न गुणी महात्मा तपस्वी आदि की निन्दा करना चैत्यनिन्दा करना कहलाता है और लौकिक दृष्टि से स्मारक, स्तूप, प्रतिमा आदि की निन्दा करना, उन्हें हानि पहुँचाना भी चैत्यनिन्दा समझना चाहिए ।
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(७) साधु साध्वी श्रावक श्राविका रूप संघ की निन्दा करने, गर्दा करने को, संघनिन्दा कहते हैं ।
इनके सिवाय गाथा में आये आदि शब्द में आगम, गुरुजनों, धर्म आदि का ग्रहण कर लेना चाहिए। उनके प्रतिकूल आचरण करने, निन्दा करते. अवर्णवाद फैलाने से भी दर्शनमोहनीय कर्म का बंध होता है ।
चारित्रमोहनीय और नरकायु के बन्धहेतु
दुविहं पिचरणमोहं कसायहासाइ विसय विवसमणो । बंधइ नरयाउ महारंभपरिग्गहरओ रुद्द ॥५७॥