Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मविपाक
(४) हिमादि पापों से विरत होना व्रत है । अणुव्रतों या महावतों का पालन करना व्रतयुक्तता है।
(५) योग का पालन करना अर्थात् साध्वाचार का पालन करना । चक्रवाल आदि दस प्रकार की साधु समाचारी को संयमयोग कहते हैं।
(६) क्रोधादि कषायों के कारण उपस्थित होने पर भी उन्हें नहीं होने देना और कषायों पर विजय पाना कषाय-विजय है।
(७) सुपात्र को आवश्यकतानुसार दान देना, साधन जुटाना, दानयुक्तता है । जैसे रोगी को औषध देना, भयभीत को निर्भय बनाना और भय के कारणों को हटाना, विद्यार्थियों को विद्या के साधनों आदि को जुटाना और भूसे को भोजन देना तथा इनगे सम्बन्धित अन्य कार्यों को करना।
(८) आत्मिक गुणों - सम्यक्ज्ञानदर्शन नारित्र में अपने आपको स्थिर करना तथा इनमें स्थिरता लाने के लिए नीतिमय जीवन, ईमानदारी, वीतराग के वचनों में दृढ़ता रखना धर्म में दृढ़ता रखना है ।
यहाँ सातावेदनीय कर्म के बन्ध के जो कारण बतलाये हैं, इनसे विपरीत कार्य करने, भावना रखने से असातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है, जैसे-गुरुजनों का आदर न करना, निरपराधी को दण्ड देना, क्रूर परिणाम रखना, तीव्रकपाय युक्त होना आदि । दुःख, शोक, संताप आदि पैदा करने वाले कार्यों में आत्मा असातावेदनीय कर्म का बन्ध करती है। दर्शनमोहनीय के बन्धहेतु
उम्मगदेसणामग्गनासणा वेदव्वहरणेहिं । दसणमोहं जिणमुणिचेइय संघाइ पडिपीओ ॥५६॥