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कर्मविपाक
के प्रतिकूल होने पर जैमें राजा किसी याचक को दान देना चाहता है और दान देने की आज्ञा भी देता है परन्तु भण्डारी इसमें बाधा उत्पन्न कर राजा की दान देने की इच्छा को सफल नहीं होने देता है । इसी प्रकार अन्तराय कर्म के लिए समझना चाहिए कि वह जीव रूपी राजा को दान, लाभ, भोग आदि की इच्छापूति में सकावट उत्पन्न करता है। ___ अन्तराय कर्म का उदय दाता की इचालाओं में रुकावट डालन के समान ही लेने वाले के लिए भी प्राप्त होने योग्य वस्तु की प्राप्ति में विघ्नबाधा उपस्थित कर देता है, जिसमे वह उसे प्राप्त नहीं कर पाता है।
इस प्रकार ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के भेद-प्रभेदों का कथन करने के अनन्तर अब आगे की गाथाओं में उनके बन्ध
के विशेष कारणों को कहने हैं । आवरणद्विक के बन्धहेतु
परिणीयत्तण निन्हव उवधाय पओस अन्तराएणं ।
अच्चासायणयाए आवरण दुर्ग जिओ जयइ ॥५४॥ गाथार्थ-ज्ञान और दर्शन के बारे में प्रत्यनीकत्व-अनिष्ट आचरण, निह्नव -अपलाप, उपघात, प्रद्वेष, अन्तराय और आसातन करने से जीव ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का उपार्जन करता है। विशेषार्थ - मिथ्यात्व आदि सामान्य बन्धहेतुओं के साथ जिन कारणों से उस-उस कर्म का मुख्य रूप से और शेष का गौण रूप से बन्ध होता है, उन्हें विशेष बन्धहेतु कहते हैं। यहाँ गाथा में ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों के बन्ध के विशेष हेतु बताये हैं, जो इस प्रकार हैं
प्रत्यनीकत्व-अनिष्ट आचरण, निन्हब--अपलाप, छिपाना, उत्सूत्र