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कर्मविपाक
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प्रकार गोत्रकर्म के प्रभाव से कई जीव उच्च और कई नीच माने जाते हैं ।
अब अन्तरायकर्म का स्वरूप समझाते हैं ।
अन्तरायकर्म जिस कर्म के उदय से जीव को दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य ( पराक्रम) में अन्तराय, विघ्न-बाधा उत्पन्न हो, उसे अन्तराय कर्म कहते हैं। इसको विघ्नकर्म भी कहते हैं ।
अन्तराय कर्म के निम्नलिखित पांच भेद है - (१) दानान्तराय, (२) लाभान्तराय (३) भोगान्तराय, (४) उपभोगान्तराय और (५) वीर्यान्तराय। इनके लक्षण क्रमश: इस प्रकार हैं
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(१) दान की सामग्री पास में हो, गुणवान पात्र दान लेने के लिए सामने हो । दान का फल भी ज्ञात हो, दान की इच्छा भी हो, फिर भी जिस कर्म के उदय मे जीव को दान देने का उत्साह नहीं होता है. उसे दानान्तराय कहते हैं।
(२) दाता उदार हो, दान की वस्तु विद्यमान हो, लेने वाला भी पात्र हो; फिर भी जिस कर्म के उदय से उसे इष्ट वस्तु की प्राप्ति न हो, उसे लाभान्तराय कहते हैं ।
(३) भोग के साधन होते हुए भी जिस कर्म के उदय से जीव भोग्य वस्तुओं का भोग नहीं कर सकता, उसे भोगान्तराय कहते हैं ।
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१. जीवं चार्थसाधनं चान्तरा एति-पत्तीत्यन्तरायम् । इदं चैवं --- जहा राया दाणा ण कुणइ मंडारिए विकूलं मि एवं जेणं जीवो कम्मं तं अन्तरायं ति || • डाग २२४५१०५ टीका २. (क) अन्तराणं भन्ने ! कम्मे कतिविधे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते
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तं जहा - दाणंतराइए, लाभंतराइए भोगं तरहइए, उबभोगंतराइए.
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वीरियंतगइए ।
(ख) दानाभभोगोपभोगदीर्याणीम् ।
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०२६३ - तस्यार्थसूत्र ०८ सूत्र १३
- प्रज्ञापना, पक्ष २२,
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