Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्म विपाक
(१) जिस कर्म के उदय से जीव का युक्तियुक्त अच्छा वचन भी अनादरणीय, अगाड़ा समझा जाता है, वह अनादेयतामकर्म है ।
(१०) जिस कर्म के उदय से जीव का लोक में अपयश और अपकीति फैले, उसे अयशः कीर्तिनामकर्म कहते हैं।
स्थावरदशक की इन दस प्रकृतियों के विवेचन के साथ नामकर्म की प्रकृतियों का कथन समाप्त हुआ । अब गोत्र और अन्तराय कर्म के स्वरूप और भेदों को बतलाते हैं ।
गोयं दुहुच्चतीयं कुलाल इव सुधभु मलाईयं । विग्धं दाणे लागे भोगुवभोगेसु बीरिए म ॥ ५२ ॥ गाथार्थ - सु-घट और मद्यघट बनाने वाले कुम्भकार के कार्य के समान गोत्रकर्म का स्वभाव है। उसके दो भेद हैं- ( १ ) उच्चगोत्र और ( २ ) नीचगोत्र | दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य - इनमें विघ्न करने से अन्तराय कर्म के पाँच भेद हैं ।
विशेषार्थ - गाथा में गोत्रकर्म का स्वभाव और भेद तथा अन्तराय कर्म के भेद बतलाये हैं। पहले गोत्रकर्म का वर्णन करते हैं । गोत्रकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव उच्च अथवा नीच कुल गोलकर्म के दो भेद हैंइनके लक्षण क्रमश: इस
में
।
जन्म लेता है, उसे गोत्रकर्म कहते हैं (१) उच्चगोत्र और (२) नौचगोत्र ।"
प्रकार हैं
तं
१. (क) गोए णं मंत्ते ! कम्मे कइबिहे पण ? गोयमा ! दृविहे पण ते जा - उच्त्रागोए व नीयागोए य ||
उच्चैश्च ।
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- प्रज्ञापना, पद २३, उ० २ ० २६३ -- तत्वार्थ सूत्र
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