Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

Previous | Next

Page 221
________________ प्रथम कर्मग्रन्थ १४ १ (४) जिस कर्म के उदय से अनन्त जीवों का एक ही शरीर हो, अर्थात् अनन्त जीव एक शरीर के स्वामी वनं, उसे साधारणनामकर्म कहते हैं । इन साधारण शरीरधारी अनन्त जीवों के जीवन, मरण, आहार, श्वासोच्छ्वास आदि परस्पराश्रित होते हैं। इसीलिए वे साधारण कहलाते हैं । अर्थात् साधारण जीवों के आहारादिक कार्य सदृश और समान काल में होते हैं । पृथ्वीकाय आदि पाँच स्थावर जीवों में से वनस्पतिकायिक जीव प्रत्येक और साधारण- दोनों प्रकार के नामकर्म वाले होते हैं । उनकी पहचान के कुछ उपाय ये हैं 3 जिनकी शिरा, सन्धि पर्व अप्रकट हों, मूल, कन्द, त्वचा, नवीन कोपल, टहनी, पत्र- कूल तथा बीजों को तोड़ने से समान भंग हों और कन्द, मूल, टहनी या स्कन्ध की छाल मोटी हो उसको माधारण और उसके विपरीत को प्रत्येक वनस्पति समझना चाहिए। (५) जिस कर्म के उदय से कान, भौंह, जीभ आदि अवयव अस्थिर अर्थात् चपल होते हैं उसे अस्थिरनामकर्म कहते हैं । (६) जिस कर्म के उदय से नाभि से नीचे के अवयव अशुभ हों, उसे अशुभ नामकर्म कहते हैं। पैर से स्पर्श होने पर अप्रसन्नता होती है, यही अशुभत्व का लक्षण है । (७) जिस कर्म के उदय से जीव उपकार करने पर भी सभी को अप्रिय लगता है. दूसरे जीब शत्रुता एवं वैरभाव रखें, वह दुर्भगनामकर्म है । (८) जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर व वचन श्रोता को अप्रिय व कर्कश प्रतीत हो, उसे दुःस्वरनामकर्म कहते हैं ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271