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कर्मविपाक (१) स्थावर, (२) सूक्ष्म, (३) अपर्याप्त, (४) साधारण, (५) अस्थिर, (६) अशुभ, (७) दुर्भग, (6) दुःस्वर, (E) अनादेय और (१०) अयश:कीर्ति ।
(१) जिस कर्म के उदय से जीव स्थिर रहे -सर्दी-गर्मी से बचने का प्रयत्न करने की शक्ति न हो, उसे स्थावरनामकर्म कहते हैं।
पृथ्वीकाय, जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय ये स्थावर जीव हैं। इनके सिर्फ प्रथम अर्थात् स्पर्शनेन्द्रिय होती है।
तेजस्काय और वायुकाय के जीवों के स्वाभाविक गति है, लेकिन द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवों की तरह सर्दी-गर्मी से बचने की विशिष्ट गति उनमें न होने से उन्हें स्थाइर इहते हैं : इन्हें समापनामधानका उदय है।
(२) जिस कर्म के उदय से जीब को सूक्ष्म शरीर, (जो स्वयं न किसी को रोके और न किसी से के) प्राप्त हो, उसे सूक्ष्मनामकर्म कहते हैं।
इस नामकर्म वाले जीव भी पूर्वोक्त पांच स्थावर ही होते हैं। वे समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं और आंख से देखे नहीं जा सकते हैं।
(३) जिस कर्म के उदय से जीव स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण न करे उसे अपर्याप्त नामकर्म कहते हैं । अपर्याप्त जीवों के दो भेद हैं - लन्ध्यपर्याप्त और करणापर्याप्त । जो जीव अपनी पर्याप्ति पूर्ण किये बिना ही मरते हैं, वे लब्ध्यपर्याप्त हैं और जो जीव अभी अपर्याप्त हैं, किन्तु आगे की पर्याप्तियां पूर्ण करने वाले हैं, उन्हें करणाऽपर्याप्त कहते हैं । ___ लब्ध्यपर्याप्त जीव भी आहार, शरीर और इन्द्रिय--इन तीन पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही भरते हैं, पहले नहीं। क्योंकि आगामी भव की आयु का बन्ध करने के बाद ही सब जीव मरा करते हैं और आयु का बन्ध उन्हीं जीवों को होता है, जिन्हींने आहार, शरीर और इन्द्रिय ये तीन पर्याप्तियों पूर्ण कर ली हैं।