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कर्मविपाक
गाथार्थ-प्रत्येकनामकर्म के उदय से जीवों के पृथक्-पृथक् शरीर होते हैं। स्थिर नामकर्म के कारण जीवों के शरीर में दाँत, हड्डियां आदि स्थिर होती हैं। नाभि से ऊपर के शरीर अवयव शुभ हों, वह शुभ नामकर्म है और जिसके उदय से जीव सभी लोगों को प्रिय लगता है, वह सुभग नामकर्म है।
विशेषार्थ-गाथा में प्रत्येक, स्थिर, शुभ और सुभग इन चार प्रकृतियों के लक्षण बताये हैं, जो इस प्रकार हैं
(१) जिस कर्म के उदय से एक सरीर का एक ही जीव स्वामी हो, उसे प्रत्येकनामकर्म कहते हैं।
(२) जिस कर्म के उदय से जीव के दाँत, हड्डी, ग्रीवा आदि शरीर के अवयव स्थिर (अपने-अपने स्थान पर रहें हों उसे स्थिरनामकर्म कहते हैं।
(३) जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर में नाभि से ऊपर के अवयव शुभ हो, उमे शुभनामकर्म कहते हैं।
(४) जिस कर्म के उदय से जीव किसी प्रकार का उपकार न करने पर भी और किसी प्रकार का सम्बन्ध न होने पर भी सभी को प्रिय लगता हो उसे सुभगनामकर्म कहते हैं।
अब आगे की गाथा में शेष रही सुस्वर आदय और यशःकीर्ति व धावर दशक की प्रकृतियों का कथन करते हैं ।
सुसरा महुरसुहझुणी आइज्जा सवलोयगिज्झयओ।
जसओ जसकित्तीओ थावरक्षसगं विवज्जस्यं ॥५॥ गायार्थ – सुस्वर नामकर्म के उदय से मधुर और सुस्वर इवनि होती है। आदेय नामकर्म के उदय से सब लोग वचन का