Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 217
________________ प्रथम कर्भग्रन्थ १३७ बनने के बाद भी शरीरपर्याप्ति द्वारा रम बनने वाले रस की शुरूआत का कथन है, उसका आशय यह है कि आहारपर्याप्ति द्वारा रस बनने की अपेक्षा शरीरपर्याप्ति द्वारा बना हुआ रस भिन्न प्रकार का होता है और यही रस शरीर को बनाने में उपयोगी होता है । आहार, शरीर और इन्द्रियों को बनाने में जो पुद्गल उपयोगी हैं उनकी अपेक्षा श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनःपर्याप्ति के पुद्गल भिन्न प्रकार के होते हैं। __ पर्याप्त जीवों के दो भेद होते हैं--(१) लन्धिपर्याप्त और (२) करणपर्याप्त । (१) जो जीव अपनी-अपनी योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करके मरते हैं, पहले नहीं, वे लब्धि-पर्याप्त हैं। (२) करणपर्याप्त के दो अर्थ हैं । करण का अर्थ है इन्द्रिय । जिन जीवों ने इन्द्रियपर्यारित पूर्ण करली है, वे करणपर्याप्त हैं। चूंकि आहार और शरीर पर्याप्ति पूर्ण किये बिना इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण नहीं हो सकती है, इसलिए तीनों पर्याप्तियां ली गई हैं, अथवा जिन जीवों ने अपनी योग्य पर्याप्नियो पूर्ण कर लो हैं, वे करण-पर्यास्त कहलाते हैं। लब्धि-पर्याप्त और करण-पर्याप्त से विपरीत लक्षण वाले जीव क्रमशः लब्धि-अपर्याप्त और करण-अपर्यास्त कहलाने हैं। इनके स्वरूप का कथन आगे स्थावरदशक की प्रकृतियों में करेंगे। अब आगे की गाथा में प्रत्येक, स्थिर, शुभ और सुभग नामकर्म के स्वरूप को बतलाते हैं। पसेय तण पत्ते उदयेणं दंतअदिठमाइ थिरं । नामुवरि सिराइ सुहं सुभगाओ सव्वजणइट्ठो ॥५०॥

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