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कर्म विपाक
(२) जिस शक्ति से जीव रस के रूप में बदल दिये गये आहार को सात धातुओं के रूप में परिणमाता है, उसकी पूर्णता को शरीरपर्याप्ति कहते हैं ।
शरीर में विद्यमान सात धातुओं के नाम क्रमश: इस प्रकार हूँ(१) रस, (२), रक्त, (३) मांस, (४) मेद ( चर्बी), (५) हड्डी (६) मज्जा और (७) वीर्य । इन सात धातुओं में से एक के बाद दूसरी, दूसरी से तीसरी धातु वीर्य - पर्यन्त बनती हैं। इन सात धातुओं के अलावा शरीर में निम्नलिखित सात उपधातुएं होती हैं
(१) वात, (२) पित्त, (३) श्लेष्म (कफ), (४) शिरा, (५) स्नायु, (६) चर्म और (७) जठराग्नि ।
(३) जिस शक्ति रो आत्मा धातुओं के रूप में परिणत आहार को स्पर्शन आदि इन्द्रिय रूप परिणमावे । उसकी पूर्णता को इन्द्रियपर्याप्त कहते हैं ।
(४) जिस शक्ति से जीव श्वासोच्छ्वास योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर श्वासोच्छ्वास रूप परिणत करके और उसका सार ग्रहण करके उन्हें वापस छोड़ता है, उस शक्ति की पूर्णता को श्वासोच्छ्वासपर्याप्त कहते हैं ।
(५) जिस शक्ति से जीव भाषा वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके भाषारूप परिणमाये और उसका आधार लेकर अनेक प्रकार की ध्वनि रूप में छोड़े, उसकी पूर्णता को भाषापर्याप्ति कहते हैं ।
(६) जिस शक्ति से जीव मन के योग्य मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके मनरूप परिणमन करे और उसकी शक्ति-विशेष से उन पुद्गलों को वापस छोड़े, उसकी पूर्णता को मनः पर्याप्त कहते हैं ।
आहारपर्याप्ति और शरीरपर्याप्ति में जो आहारपर्याप्ति के द्वारा