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कर्मविपाक परिणामों द्वारा प्रकट रूप में दिखलाई देता है । सारांश यह है कि कर्मशक्ति विचित्र है, इसलिए बादरनामकर्म पृथ्वीकाय आदि जीवों में एक प्रकार के बादर परिणाम को उत्पन्न कर देता है, जिससे उनके शरीर समुदाय में एक प्रकार की अभिव्यक्ति प्रकट हो जाती है और वे शरीर दृष्टिगोचर होते हैं।
जिस कर्म के उदय से जीव अपनी-अपनी पर्याप्तियों में युक्त होते हैं. वह पर्याप्तनामकर्म है।
जीव की उस शक्ति को पर्याप्ति कहते हैं, जिसके द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करने तथा उनका आहार, शरीर आदि के रूप में बदल देने का कार्य होता है।
पर्याप्ति के छह भेद हैं-(१) महाभर्याप्सि, २) शरीयात (३) इन्द्रियपर्याप्ति, (४) श्वासोच्छवासपर्याप्ति, १५) भाषापर्याप्ति, (६) मनपर्याप्ति ।
उक्त छह पर्याप्तियों में अनुक्रम से एकेन्द्रिय जीव के चार (आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास), द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय के उक्त आहार आदि चार पर्याप्तियों के साथ भाषापर्याप्ति के मिलाने से पाँच तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के आहारादि मन पर्यन्त छहों पर्याप्तियाँ होती है।
इभव सम्बन्धी शरीर का परित्याग करने के बाद परभव सम्बन्धी शरीर ग्रहण करने के लिए जीव उत्पत्तिस्थान में पहुंचकर कार्मण शरीर के द्वारा जिन पुद्गलों को प्रथम समय में ग्रहण करता है, उनके आहारपर्याप्ति आदि रूप छह विभाग होते हैं और उनके द्वारा एक साथ छहों पयोप्तियों का बनना प्रारम्भ हो जाता है, अर्थात् प्रथम समय में ग्रहण किये हुए पुद्गलों के छह भागों में से एक-एक भाग लेकर प्रत्येक पर्याप्ति का बनना प्रारम्भ हो जाता है, किन्तु उनकी