Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
प्रथम कर्म ग्रन्थ
१३३
लाते हैं। तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों के स्थावर नामकर्म का उदय होता है और वे स्थावर ही हैं । लेकिन बस जीवों के समान गतिशील होने से वे मतित्रस कहलाते हैं । ये उपचार से बस कहे जाते हैं ।
सजीवों में से द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय स मनरहित होते हैं और पंचेन्द्रियों में से कई प्राणी मनसहित और कई मनरहित होते हैं । किन्तु तेजस्कायिक और वायुकायिक त्रस तो मनरहित ही होते हैं ।
जिस कर्म के उदय से जीव को बादर (स्थूल काय की प्राप्ति हो, उसे बादरनामकर्म कहते हैं ।
'जिसे आँख देख सके', यह बादर का अर्थ नहीं है, क्योंकि एक-एक बादर पृथ्वीकाय आदि का शरीर आंखों से नहीं देखा जा सकता है । किन्तु बादरनामकर्म पृथ्वीकाय आदि जीवों के शरीर समुदाय में एक प्रकार की अभिव्यक्ति प्रगट करता है, जिससे वे शरीर दृष्टिगोचर होते हैं ।
बादर नामकर्म जीवविपाकिनी प्रकृति है। यह प्रकृति शरीर के पुद्गलों के माध्यम से जीत्र में बादर परिणाम को उत्पन्न करती है, जिससे वे दृष्टिगोचर होते हैं। किन्तु जिन्हें इस कर्म का उदय नहीं होता, ऐसे सूक्ष्म जीव समुदाय रूप में भी एकत्रित हो जायें तो भी दृष्टिगोचर नहीं होते हैं ।
बादरनामकर्म के जीवविपाकिनी प्रकृति होने पर भी शरीर क पुद्गलों के माध्यम से उसकी अभिव्यक्ति का कारण यह है कि जीवविपाकिनी प्रकृति का शरीर में प्रभाव दिखलाना विरुद्ध नहीं है । जैसे क्रोध के जीवविपाकिनी प्रकृति होने पर भी उसका उदक - भौंह का टेढ़ा होना, आँखों का लाल होना, ओठों की फड़फड़ाहट इत्यादि