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प्रथम कर्मग्रन्थ
अङ्गोवंगनियमणं निम्माणं कुणइ सुतहारसमं ।
उवघापा उवहम्मद सतणुवयबलं विगाह ॥४८॥ गाथार्थ:-निर्माणनामकर्म सूत्रधार के समान शरीरों के अंगों और उपांगों का यथायोग्य प्रदेशों में व्यवस्थापन करता है । उपघातनामकर्म के कारण जीव अपने शरीर के अवयवभूत लंबिका यानी छठी अंगुली आदि से क्लेश पाता है। विशेषार्थ-जिस कम के उदय से शरीर में अंग-उपांग अपनीअपनी जगह व्यवस्थित होते हैं, उसे निर्माण-नामकर्म कहते हैं ।
निर्माण का अर्थ है व्यवस्थित रूप में रचना होना । जैसे चित्रकार या शिल्पी चित्र या मूति में हाथ-पैर आदि अवयवों को यथास्थान चित्रित करता या बनाता है, वैसे ही निर्माणनामकर्म शरीर के अवयवों का नियमन करता है। यदि यह कर्म न हो तो अंगोपांगनामकर्म के उदय से बने हुए अंग-उपांगों-हाथ, पैर, आँख, कान, आदि का यथास्थान नियमन नहीं हो सकता है। अर्थात् निर्माणनामकर्म शारीरिक अवयवों का उन-उनके स्थान पर होने का नियमन करता है और इसके कारण वे अंग-उपांग आदि अपने-अपने स्थान पर व्यवस्थित रीति से स्थापित होते हैं।
जिस कर्म के उदय से जीव अपने शरीर के अवयवों-प्रतिजिह्वा (पड़जीव , चौरदन्त (ओठ के बाहर निकले हुए दाँत), लबिका (छठी उंगली) आदि से क्लेश पाता है, उसे उपघातनामकर्म कहते हैं।
शरीर में अंग और उपांगों के यथायोग्य स्थान पर व्यवस्थित होने पर भी किसी-किसी जीव के शरीर में अवयवभूत अंग-उपांग ऐसे दिखते हैं, जो उपयोगी कार्य में सहकारी न होकर जीव को क्लेशोत्पादक बन जाते हैं। इनका क्लेशोत्पादक बनने का कारण उपधातनामकर्म है।