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कर्मविपाक
विशेषार्थ-अगुरुल और तीथंकर नामकर्मों का स्वरूप माथा में समझाया गया है।
जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर हल्का और भारी न होकर अगुरुलघु परिणाम वाला होता है. उसे अगुरुलथुनामकर्म कहते हैं। ____ अगुरुलघुनामकर्म के कारण ही जीव को स्वयं अपना शरीर इतना भारी मालूम नहीं पड़ता है कि उसे संभालना कठिन हो जाए और न इतना हल्का ही प्रतीत होता है कि आक की रुई के समान हवा में उड़ने से भी नहीं बचाया जा सके। अर्थात जीव को स्वयं का शरीर वजन में भारी या हल्का प्रतीत न होकर अगुरुलघनामकर्म के उदय से अगुरुलघु परिणाम वाला प्रतीत होता है। __जिस कर्म के उदय से तीर्थकर पद की प्राप्ति होती है, उसे तीर्थकरनामकर्म कहते हैं।
तीर्थंकरनामकर्म का उदय केवलज्ञान उत्पन्न होने पर होता है । इस कर्म के कारण ही वह त्रैलोक्यपूज्य और उसे समवसरणरूप बाह्य वैभव प्राप्त होता है। यह वैभव सभी केवलज्ञानियों को प्राप्त नहीं होता, किन्तु उन्हें मिलता है जिन्होंने तीर्थकरनामकर्म का बन्ध किया हो। तीर्थकर पद में विराजमान केवलज्ञानी अधिकारयुक्त वाणी में उस मार्ग को दिखाते हैं, जिसका आचरण कर स्वयं ने इस कृतकृत्य दशा को प्राप्त किया है । धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं, जिसको श्रावक, श्रादिका, साधु, साध्वी रूप चतुर्विध संघ भी कहते हैं ।
संसार के बड़े-से-बड़े शक्तिशाली देवेन्द्र, नरेन्द्र आदि तक उनकी अत्यन्त श्रद्धा से सेवा करते हैं और उनकी वाणी को सुनने का अवसर प्राप्त करना अपना अहोभाग्य मानते हैं ।
अब आगे की गाथा में निर्माण और उपधात नामकर्म का स्वरूप कहते हैं।