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प्रथम कर्म ग्रन्य
१२६ सारांश यह है कि आतपनामकर्म का उदय जिन जीवों के होता है, उनका शरीर स्वयं तो ठण्डा है, लेकिन प्रभा ही उष्ण होती है और अग्निकाय के जीवों का शरीर भी उष्णस्पर्श एवं प्रकाश भी उष्णस्पर्श वाला होता है। आतपनामकर्म और उष्णस्पर्शनामकर्म वाले जीवों में यही अन्तर है।
अब उद्योतनामकर्म की व्याख्या करते हैं।
जिस कर्म के उदय में जीव का शरीर शीत प्रकाश फैलाता है, उसे उद्योतनामकर्म कहते हैं। ____ लब्धि-धारी मुनि जब वैक्रिय शारीर धारण करते हैं तथा देव जब मूल शरीर की अपेक्षा उत्तरवैश्यि शरीर धारण करते हैं तब उनके शरीर से शीतल प्रकाश निकलता है, वह इसी उद्योतनामकर्म के उदय से समझना चाहिए। चन्द्र, नक्षत्र और तारा मण्डलों के पृथ्वी काय के जीवों के शरीर उद्योतनामकर्म से युक्त होने के कारण शीतल प्रकाश फैलाते हैं। इसी प्रकार जुगन, रत्न एवं अन्य प्रकाश फैलाने वाली औषधियों में भी इसी उद्योतनामकर्म का उदय समझना चाहिए।
अब आगे की गाथा में अगुरुल और तीर्थकर नामकर्म के लक्षण कहते हैं।
अंगं न गुरु न लहुयं जायइ जीवस्स अगुरुलहुउवया । तित्थेण तिहुयणस्स वि पुज्जो से उदओ केवलिणो ॥४७॥ गाथार्थ-अगुरुलघु कर्म के उदय से जीव का शरीर न तो भारी और न हल्का होता है। तीर्थंकर नामकर्म के उदय से जीव त्रिभुवन का भी पूज्य होता है। इसका उदय केवलज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात होता है।