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प्रथम कर्म ग्रन्थ
इस प्रकार पिण्डप्रकृतियों का कथन करने के बाद अब प्रत्येक प्रकृतियों का वर्णन करते हैं ।
परधाउदा पाणी परेसि बलिणं पि होइ दुइरिसो । ऊस सलद्वित्तो हवेर
गाथा - पराषा नामक कर्म के उदय से जीव दूसरे बलवानों के लिए अजेय होता है और उच्छ्वास नामकर्म के उदय से उच्छ्वास लब्धियुक्त होता है ।
उपासनामवसी ॥ ४४ ॥
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विशेषार्थ नामकर्म की जो अप्रतिपक्षा आठ प्रत्येकप्रकृतियाँ हैं। उनमें से पराघात और उच्छ्वास प्रकृतियों के लक्षण इस प्रकार हैं
जिस कर्म के उदय से जीव बड़े-बड़े बलवानों की दृष्टि में भी अजेय मालूम हो, वह पराघातनामकर्म है । अर्थात् पराघातनामकर्म का उदय होने पर जीव कमजोरों का तो कहना ही क्या, बड़े-बड़े बलवानों, बुद्धिमानों विद्वानों और विरोधियों की दृष्टि में भी अजेय दिखता है, उसके प्रभाव से वे पराभूत हो जाते हैं ।
जिस कर्म के उदय से जीव श्वासोच्छ्वास लब्धियुक्त होता है, उसे उच्छ्वासनामकर्म कहते हैं। शरीर के बाहर की हवा को नाक द्वारा अन्दर खींचना श्वास है और शरीर के अन्दर की हवा को नाक द्वारा बाहर छोड़ना उच्छ्वास कहलाता है। इन दोनों कार्यों को करने को शक्ति जीव को उच्छ्वास नामकर्म से प्राप्त होती है ।
ra आगे की दो गाथाओं में आतप और उद्योत नामकर्म के लक्षण कहते हैं ।
रविबिंबे उजियंगं तावजुयं आवाज न उ जलणे 1 जमुसिणफासस्स तह लेहियषन्नस्स उघउ त्ति ॥ ४५ ॥