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कर्मविपाक
अनुसार गति करता हुआ उत्पत्तिस्थान पर पहुँचता है। इसमें आनुपूर्वी नामकर्म कारण है । जो समश्रेणी से अपने उत्पत्तिस्थान के प्रति जाने वाले संसारी जीव को उसके विश्रेणी पतित उत्पत्तिस्थान पर पहुँचा देता है। यदि जीब का उत्पत्तिस्थान समश्रेणी में हो तो आनुपूर्वी नामकर्म का उदय नहीं होता है। वक्रगति में आनुपूर्वी नामकर्म का उदय होता है, ऋजमति में नहीं होता है। ___ इसी सन्दर्भ में प्रयोग में आने वाली गतिद्विक, गतित्रिक आदि संज्ञाओं के संकेत का अर्थ यह है कि जहाँ गतिद्धिक ऐसा संकेत हो, वहाँ गति और आनुपूर्यो नामकर्म यह दो प्रकृतियां लेना चाहिए और जहाँ गतित्रिक संकेत हो, वहाँ गति, आनुपूर्वो और आयु इन तीन प्रकृतियों का ग्रहण करना चाहिए। सामान्य में ये संज्ञा, काही गई हैं। विशन से संज्ञाओं को इस प्रकार समझना चाहिएजैसे-'नरकद्विक' में नरकगति और नरकानुपूर्वी का ग्रहण होगा । यदि नरकत्रिक संज्ञा का संकेत हो तो उसमें नरकगति, नरकानुपूर्वी और नरकायु का ग्रहण होगा। इसी प्रकार तियेचहिक, तिर्यंचत्रिक, मनुष्यद्विक, मनुष्यत्रिक, देवद्धिक. देवत्रिक संज्ञाओं के लिए समझ लेना चाहिए। अपने-अपने नामवाली गति, आनपूर्वी को ग्रहण करने से द्विक, और आयु को ग्रहण करने पर त्रिक संज्ञाएं बनती हैं ।
विहायोगति नामकर्म के भेद और लक्षण इस प्रकार हैं
(१) शुभविहायोगति, (२) अशुभविहायोगनि । __ जिस कर्म के उदय से जीव की चाल हाथी, बैल की चाल की तरह शुभ हो, वह शुभविहायोगति नामकर्म है।
जिस कर्म के उदय से जीव की चाल ऊंट, गधे आदि की चाल की तरह अशुभ हो, वह अशुभविहायोगति नामकर्म है ।