Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 204
________________ कर्म विपाक अशुभ स्वर्शनामकर्म - गुरुस्पर्श, खर- कर्कश स्पर्श, रूक्षस्पर्श, शीत स्पर्श | १२४ उक्त दो वर्ण, एक गन्ध, दो रस और चार स्पर्श के नाम मिलाने से वर्णचतुष्क की नौ अशुभ प्रकृतियाँ समझनी चाहिए तथा शेष रही ग्यारह शुभ प्रकृतियों की संख्या और नाम क्रमश: इस प्रकार हैं शुभ वर्णनामकर्म - सितवर्ण, पीतवर्ण, लोहितवर्ण । शुभ गन्धनामकर्म सुरभिगन्ध (सुगन्ध ) | शुभ रसनामकर्म - कषायरस, आम्लरस, मधुररस शुभ स्पर्श नामकर्म - लघुस्पर्श, मुदुस्पर्श, स्निग्धस्पर्श, उष्णस्पर्श । अब आगे की गाथा में आनुपूर्वी नामकर्म के भेद, नरकद्विक आदि संज्ञाएं और विहायोगति नामकर्म के भेदों को कहते हैं । उह गहव्वणुपुत्री गइव्यिगं तिगं नियाउजुयं । पुथ्वीउदो बक्के सुहअसुह वसुद्ध विहगगई ||४३|| गाथार्थ -गतिनामकर्म के चार भेदों के समान आनुपूर्वी नामकर्म के भी चार भेद होते हैं और आनुपूर्वी नामकर्म का उदय विग्रहगति में होता है। गति और आनुपूर्वी को मिलाने से गतिद्रिक और इस ड्रिंक में आयु को जोड़ने से गतित्रिक संज्ञाएँ बनती है। बैल और ऊँट की चाल की तरह शुभ और अशुभ के भेद से, विहायोगति नामकर्म के दो भेद हैं । विशेषार्थ -- नामकर्म की पिsत्रकृतियों में से घोष रही आनुपूर्वी और विहायोगति प्रकृतियों के भेदों और नामकर्म के भेदों से बनने वाली नरकद्विक आदि संज्ञाओं का कथन गाथा में किया गया है । आनुपूर्वी नामकर्म के भेद और स्वरूप क्रमशः इस प्रकार है

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