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कर्मविपाक
इस प्रकार अप्रतिपक्षा आठ प्रत्येक प्रकृतियों के स्वरूप का कथन करने के पश्चात आगे की गाथा में, सप्रतिपक्षा बोस प्रकृतियों में से त्रस बादर और पर्याप्त नामकर्मों का स्वरूप
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कहते हैं ।
बितिउपणिदिय तसा बायरओ बायरा जिया धूला । नियनियपज्जत्तिजुया पज्जत्ता किरणेह ॥४६॥ गाथार्थ - सनामकर्म के उदय से जीव दो, तीन, चार और पाँच इन्द्रिय वाले, बादरनामकर्म के उदय से जीव बादर अर्थात् स्थूल और पर्याप्त नामकर्म के उदय से जीब अपनीअपनी योग्य पर्याप्तियों सहित होते हैं। पर्याप्त जीव लब्धि और करण के भेद से दो प्रकार के हैं ।
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विशेषार्थ - गाथा में सदशक की प्रकृतियों में से बस बादर और पर्याप्त प्रकृतियों का स्वरूप समझाया है ।
जिस कर्म के उदय से जीव को श्रसकाय की प्राप्ति हो, उमे त्रस नामकर्म कहते हैं ।
अस जीवों के चार भेद है- (१) द्वीन्द्रिय ( २ ) श्रीन्द्रिय, (३) चतुरिन्द्रिय और (४) पंचेन्द्रिय । त्रस जीव गर्मी-सर्दी से अपना बचाव करने के लिए एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान में जाने में समर्थ होते हैं ।
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यद्यपि तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों के स्थावर नामक में का उदय है, लेकिन उनमें बस की-सी गति होने के कारण गति सादृश्य देखकर उन्हें भी त्रस कहा जाता है । अर्थात् अस दो प्रकार के हैं-लब्धि और तिस । त्रस नामकर्म के उदय वाले द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव लब्धित्रस हैं और मुख्य रूप से ये ही अस कह