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प्रथम कर्मग्रन्थ
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(४) उपभोग की सामग्री होते हुए भी जीव जिस कम के उदय से उस सामग्री का उपभोग न कर सके, उसे उपभोगान्तराय कहते हैं । जो पदार्थ एक बार भोगे जाएँ, उन्हें भोग कहते है । जैस-भोजनादि । जो पदार्थ बार-बार भोगे जाएँ, उन्हें उपभोग कहते है, जैसे - मकान, वस्त्र, आभूषण आदि ।
(५) वीर्य याने पराक्रम । जिस कर्म के उदय से जीव शक्तिशाली और नीरोग होते हुए भी कार्यविशेष में पराक्रम न कर सके, शक्तिसामर्थ्य का उपयोग न कर सके, उसे वीर्यान्तराय कहते हैं ।
वीर्यान्तराय के तीन भेद हैं- बाल वीर्यान्तराय, पण्डित वीर्यान्तराय, बाल-पण्डित वीर्यान्तराय । सांसारिक कार्यों को करने की सामर्थ्य होने पर भी जीव जिसके उदय से उनको न कर सके, वह बाल वीर्यातराय है । सम्यग्दृष्टि साधु मोक्ष की चाह रखते हैं, किन्तु जिसके उदय मे तदर्थ क्रियाओं को न कर सके, वह पण्डित वीर्यान्तराय है और देशत्रिरति को चाहता हुआ भी जीव जिसके उदय से उसका पालन न कर सके, वह बाल पण्डित वीर्यान्तराय है ।
अब आगे की गाथा में अन्तराय कर्म का दृष्टान्त कहते हैं । सिरिहरियसमं जह पडिकूलेण तेण रायाई । न कुणद्द दाणाईयं एवं त्रिग्घेण जीवो वि ॥ ५३ ॥ गाथार्थ - - अन्तराय कर्म श्रीगृही भण्डारी के समान है । जैसे भण्डारी के प्रतिकूल होने पर राजा दानादि नहीं कर पाते हैं, उसी प्रकार अन्तरायकर्म के कारण जीव भी दानादि करने की इच्छा रखते हुए भी दानादि नहीं कर पाता है ।
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विशेषार्थ - यहाँ दृष्टान्त द्वारा अन्तरायकर्म के स्वभाव को समझाया है कि अन्तरायकर्म का स्वभाव भण्डारी के समान है । भण्डारी