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प्रद्वेष - द्वेष, अरुचि, ईर्ष्या, अन्तअवर्णवाद - ये ज्ञानावरण और विशेष कारण हैं। इनके लक्षण क्रमशः
प्रथम कर्मग्रन्थ
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प्ररूपणा करना, उपघात – विनाश, राय - विरून, आसातना - निन्दा, दर्शनावरण कर्मों के बन्ध के इस प्रकार हैं
(१) ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के साधनों के प्रतिकूल आचरण करना प्रत्यनीकत्व कहलाता है ।
(२) मानवा ज्ञानदाता गुरु का नाम छिपाना, अमुक के पास पह कर भी मैंने इनसे नहीं पढ़ा अथवा अमुक विषय को जानते हुए भी मैं नहीं जानता - उत्सूत्र प्ररूपणा करना, इस प्रकार के अपलाप को निन्द्रव कहते हैं ।
पुस्तक पठणला आदि का शस्त्र, अग्नि आदि से नाश कर देना उपघात है ।
(३) ज्ञानियों और ज्ञान के
(४) ज्ञानियों और ज्ञान के साधनों पर प्रेम न रखकर द्वेष रखना अरुचि रखना प्रदेष हैं।
(५) ज्ञानाभ्यास के साधनों में रुकावट डालना, विद्यार्थियों को विद्या, भोजन, वस्त्र, स्थान आदि का लाभ होता हो तो उसे न होने देना, विद्याभ्यास छुड़ाकर उनसे अन्य काम करवाना अन्तराय कहलाता है ।
(६) ज्ञानियों की निन्दा करना उनके बारे में झूठी झूठी बातें कहना या मर्मच्छेदी बातें लोक में फैलाना, उन्हें मार्मिक पीड़ा हो, ऐसा कपट - जाल फैलाना आसानना है ।
पूर्वोक्त कार्यों के सिवाय निषिद्ध काल स्थान आदि में अभ्यास करना, गुरु का विनय न करना, पुस्तकों आदि को पैरों से हटाना, पुस्तकों का सदुपयोग न होने देना आदि तथा इसी प्रकार के अन्य कारण व कार्यों