Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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(१) स्वसंवेवम-कप साधक प्रमाण-यद्यपि सभी देह-धारी अजान के आवरण से न्यूनाधिक रूप से घिरे हुए हैं और इससे ये अपने ही अस्तित्व का सन्देह करते हैं, तथापि जिस समय उनकी बुद्धि थोड़ी-सी भी स्थिर हो जाती है, उस समय उनको यह स्फुरणा होती है कि 'मैं यह स्फू मनाई होती कि 'मैं नहीं हूँ'। इस से उल्टा यह निश्चय होता है 'मैं हूँ' | इसी बात को श्री शंकराचार्य ने भी कहा है --
सर्व आत्माऽस्तित्वं प्रत्येति न नाहमस्मीति''-इसी निश्श्य को स्वसंवेदन या आत्मनिश्चय कहते हैं ।
(२) बाधक प्रमाण का अभाष-ऐसा कोई प्रमाण नहीं जो आत्मा के अस्तित्व का निषेध करता हो । इम पर यदि यह शंका की जाये कि मन और इन्द्रियों के द्वारा आत्मा का ग्रहण न होना उसका बाधक प्रमाण है, तो इसका समाधान सहज है। क्योंकि बाधक प्रमाण वही माना जाता है, जो उग विषय को जानने की शक्ति रखता हो और अन्य सब सामग्री मौजूद होने पर भी उसे ग्रहण न कर सके। उदाहरणार्थ- आँख मिट्टी के घड़े को देख सकती है। परन्तु प्रकाश, समीगता आदि सामग्री रहने पर भी बह घड़े को न देले, उस समय उसे उस विषय की बाधक समझना चाहिए।
इन्द्रियाँ सभी भौतिक है । उनको ग्रहणशक्ति परिमित है। वे भौतिक पदार्थों में से भी स्थल, निकटवर्ती और नियत विषयों को ही ऊपर-ऊपर से जान सकती हैं । सूक्ष्मदर्शक यन्त्रों आदि साधनों की भी सही दशा है। वे अभी तक भीतिया पदाथों में ही कार्यकारी सिद्ध हुए हैं और उनमें भी पूर्ण रूप से नहीं । इसलिए उनका अभौलिव-अमूर्त आत्मा को न जान सकना बाधक नहीं कहा जा सकता है। मन मुक्ष्म भौतिक होने पर भी इन्द्रियों का दास बन जाता है-एक के पीछे एक, इस तरह अनेक विषयों में बन्दरों के समान दौड़ लगाता फिरता है तब उसमें राजस और तामस वृतियां पैदा होती हैं। सात्त्विक भाव प्रकट नहीं हो पाता है । यही बात गीता में भी कही गयी है
१ ब्रह्मभाष्य १-१-१