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प्रथम कर्मग्रन्थ
(१) मनःपर्य यज्ञान अवधिज्ञान की अपेक्षा अपने विषय को विशद रूप से जानता है । इसलिए उसमे विशुद्धतर है।
(२) अवधिज्ञान का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोक है जबकि मनःपयंयज्ञान का क्षेत्र मानूषोत्तरपर्वतपर्यन्त मध्यलोक है।
(३) अवधिज्ञान के स्वामी चारों गति वाले हो सकते हैं, किन्तु मनःपर्ययज्ञान के स्वामी ऋद्धिप्राप्त अप्रमत्त-संयत मनुष्य ही
(४) अबधिज्ञान का विषय कतिपय पर्याय सहित रूपी द्रव्य है, परन्तु मनःपर्ययज्ञान का विषय मनोद्रव्य मात्र है।
(५) अवधिज्ञान परभव में भी साथ जा सकता है, जबकि मन:पर्ययज्ञान इहभविक ही होता है।
अब केवलज्ञान का कथन करते हैंकेवलझान-जो ज्ञान किसी की सहायता के बिना अर्थात इन्द्रि. यादि की सहायता के बिना मुत-अमूर्त सभी ज्ञेय पदार्थों को हस्तामलक की तरह प्रत्यक्ष करने की शक्ति रखने वाला है, उसे केवलज्ञान कहते हैं। ___मतिज्ञानादि चारों क्षायोपमिक ज्ञान विशुद्ध हो सकते हैं किन्तु विशुद्धतम नहीं, जबकि केवलज्ञान विशुद्धतम ही होता है । केवलज्ञान नित्य, निरावरण, शाश्वत और अनन्त होता है, जबकि शेष क्षायोपशामिक चारों ज्ञान वैसे नहीं हैं। केवलज्ञान के अवान्तर भेद नहीं होते हैं।
शक्ति को अपेक्षा एक साथ कितने ज्ञान ? ज्ञान के उक्त पाँच भेदों में से एक आत्मा में एक साथ एक से लेकर