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कर्मविपाक
अगुरुलघुचतुष्क (१) अगुरुलघुनाम, (२) अपघातनाम, (३) पराघातनाम, (४) उच्छ्वासनाम |
सद्विक- (१) सनाम (२) बादरनाम | नाम (ए) बादाम, (इ)
त्रसत्रिक-- (१)
त्रसषट्क - ( १ ) सनाम (२) बादरनाम, (३) पर्याप्तनाम (४) प्रत्येकनाम) (५) स्थिरनाम, (६) शुभनाम
I
गाथा में आये आदि शब्द का यह अर्थ समझना चाहिए कि कर्मप्रकृतियों को सरलता से समझने के लिए इसी प्रकार की ओर दूसरी संज्ञाएँ बना लेनी चाहिए। जैसे
दुर्भगत्रिक -- (१) दुर्भगनाम, (२) दुःस्वरनाम, (३) अनादेयनाम | स्त्यानद्वित्रिक (१) स्त्यानद्धि, (२) निद्रा निद्रा, (३) प्रचला
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प्रचला ।
तेईसवीं गाथा में जो अपेक्षा भेद से नामकर्म के ४२, ६३, १०३ और ६७ भेद होना कहा था। उनमें से बयालीस भेदों के नाम और संकेतों द्वारा संक्षेप में समझने के लिये संज्ञाओं का कथन किया जा चुका है। अपेक्षाभेद से बनने वाले ९३ भेदों को कहने के लिए १४ fusप्रकृतियों की उत्तरप्रकृतियों की संख्या बतलाते हैं ।
इय
गइयाईण उ कमसो चपणपणतिपणपंच छच्छ्रकं । पण बुगपण ठषजदुग उत्तरमेयपणसट्ठी ||३०| गाथार्थ - पूर्व में कही गई नामकर्म की गति आदि चौदह पिण्डप्रकृतियों के क्रमशः चार, पांच, पाँच, तीन, पाँच, पाँच, छह, छह, पांच, दो, पांच, आठ, चार और दो भेद होते हैं । इन सब भेदों को जोड़ने से कुल पैंसठ भेद हो जाते हैं । विशेषार्थ अपेक्षाभेद से नामकर्म के तेरानवे आदि भेद भी होते हैं । अतः उनको कहने के लिए चौबीसवीं गाथा में कही गई पिंड