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प्रथम कर्मग्रन्थ
- परस्पर मिलाता है, उस कर्म को आदारिक आदि बन्धननामकर्म जानो ।
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विशेषार्थ - जिस प्रकार लाख गोंद आदि चिपकने पदार्थों से चीजें आपस में जोड़ दी जाती हैं, उसी प्रकार बन्धन नामकर्म भी शरीर नामकर्म के बल से पहले ग्रहण किये हुए और वर्तमान में ग्रहण हो रहे औदारिक शरीरों के पुद्गलों को बाँध देता है-जोड़ देता है। यदि बन्धन नामकर्म न हो तो शरीराकार परिणत पुद्गलों में वैसी ही अस्थिरता हो जाती है, जैसी हवा में उड़ते सत्तू के कणों में होती है । बन्धन दो प्रकार का होता है- सर्व पेशी पैदा होने वाले शरीरों के प्रारम्भ काल में सर्वबन्ध होता है और बाद में वे शरीर जब तक धारण किये हुए रहते हैं, देशबन्ध होता है। अर्थात् जो शरीर नवीन उत्पन्न नहीं होते हैं, किन्तु उनमें जब तक वे रहते हैं, देशबन्ध ही हुआ करता है ।
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ओदारिक, वैक्रिय और आहारक इन तीन शरीरों में उत्पत्ति के समय सर्वबन्ध और बाद में देशबन्ध होता है। किन्तु तेजस और कार्मण शरीर संसारी जीवों के सदैव रहते हैं, उनकी उत्पत्ति नवीन नहीं होती है अतः उनमें देशबन्ध होता है।
बन्धननामकर्म के पाँव भेद होते हैं(१) औदारिकशरीर बन्धननाम (२) वैक्रियशरीर बन्धननाम (३) आहारकशरीर बन्धननाम, (४) तैजसशरीर बन्धननाम । (५) कार्म शरीर बन्धननाम । इनके लक्षण क्रमश: इस प्रकार हैं
(१) जिस कर्म के उदय से पूर्व गृहीत- पहले ग्रहण किये हुए ओदारिक शरीर पुद्गलों के साथ गृह्यमाण - वर्तमान में ग्रहण किये जाने वाले श्रदारिक पुद्गलों का आपस में मेल हो, वह ओदारिकशरीरबन्धन नामकर्म है ।