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प्रथम कर्म ग्रन्थ
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संघयणमट्ठिनिचओ तं छद्धा बज्ञ्जरिसनारायं । तह य रिसनारायं नाराय अद्धनारामं ॥ ३८ ॥ कोलिअ छेवट इह रिसहो पट्टो य कीलिया वज्जं । उभओ मक्कडबन्धो नारायं इममुरालंगे ॥ ३६ ॥ गाथायें - हड्डियों की रचना - विशेष को संहनन कहते हैं । इसके वज्रऋषभ नाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्द्धनाराच, कीलिका और सेवार्त ये छह भेद हैं । इनमें ऋषभ का अर्थ पट्ट-वेष्टन, वज्र का अर्थ कील और नाराच का अर्थ दोनों ओर मर्कटबन्ध समझना चाहिये ।
विशेषार्थ - नामकर्म की पिङप्रकृतियों के वर्णन में क्रमप्राप्त संहनननामकर्म के दों का इन दो बाबाओं से किया गया है। जिस नामकर्म के उदय से हड्डियों का आपस में जुड़ जाना, अर्थात् रचना-विशेष होती है, उसे संहनननामकर्म कहते हैं । औदारिक शरीर के अतिरिक्त अन्य मंत्रिय आदि शरीरों में हड्डियाँ नहीं होने से ओदारिक शरीर में ही इसका उदय होता है। संहनन नामकर्म के छह भेद और उनके लक्षण क्रमश: इस प्रकार हैं
(१) वज्रऋषभनाराच, (२) ऋषभनाराच, (३) नाराच, (४) अर्द्ध नाराच, (५) कीलिका, (६) छेबट्ट
प्रत्येक के साथ संहनननामकर्म जोड़ लेना चाहिए ।
(१) वज्र, ऋषभ और नाराच, इन तीन शब्दों के योग से निष्पन्न वज्रऋषभनाराच पद है। इनमें वज्र का अर्थ कीली, ऋषभ ' का अर्थ वेष्टन - पट्टी और नाराच का अर्थ दोनों ओर मर्कटबन्ध है । जिस संहनन में दोनों तरफ से मर्कट बन्ध में बंधी हुई दो हड्डियों पर तीसरी हड्डी का वेतन ( पट्ट) हो और इन तीन हड्डियों को भेदने