________________
११८
कर्मविपाक वाली हड्डी की कीली लगी हुई हो, उस वन ऋषभनाराच कहते हैं । जिस कर्म के उदय से हड्डियों की ऐसी रचना-विशेष हो, उसे वज्रऋषभनाराच-सहनननामकर्म कहते हैं।
(२) जिस कर्म के उदय से हड्डियों की रचना-विशेष में दोनों तरफ हड्डी का मर्कटबन्ध हो, तीसरी हड्डी का वेठन भी हो, लेकिन तीनों को भेदने वाली हड्डी की कीली न हो, उसे ऋषभनाराचसंहनननामकर्म कहते हैं।
(३) जिस कम के उदय से हड्डियों की रचना में दोनों तरफ मटबन्ध हो, लेकिन वेठन और कील न हो, उमे नाराच-संहनननामकर्म कहते हैं।
जिस कप के उस से हटियों की रचना में एक और मर्कट बन्ध और दूसरी ओर कील हो उसे अर्धनाराचसंहनननामकर्म कहते हैं ।
(५) जिस कम के उदय से हड्डियों की रचना में मर्कटवन्ध और वेठन न हो, किन्तु कील से हड्डियां जुड़ी हों, उसे कीलिका-संहनननामकर्म' कहते हैं।
(६) जिस कर्म के उदय से हड्डियों की रचना में मर्कटबन्ध, वेठन और कील न होकर यों ही हड्डियाँ आपस में जुड़ी हों, उसे छेवट्ट-संहनननामकर्म कहते हैं । छेवट्ट को सेवात अथवा छेदवृत्त भी कहते हैं ।
अब संस्थान और वर्ण नामकर्म के भेदों का वर्णन करते हैं
समचउरंस निग्गोहसाइखुज्जाइ वामण हुँ ।
संठाणा वन्ना किण्हनीललोहियलिसिया ॥४०॥ गाथार्थ-समचतुरस्र, न्यग्रोध, सादि, कुब्ज, वामन और