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प्रथम कर्मग्रन्थ
हुण्ड-ये संस्थाननामकर्म के और कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र पौत एवं प्रवेत --ये वर्ण नामकर्म के भेद हैं।
विशेषार्थ-गाथा में संस्थान और वर्णनामकर्म के भेदों के नाम कहे गये हैं। उनमें से पहले मंस्थान नामकर्म और बाद में वर्णनामकर्म के भेदों का निरूपण करते हैं।
शरीर के आकार को संस्थान' कहते हैं। जिस कर्म के उदय से संस्थान की प्राप्ति हो, उसे संस्थाननामकर्म कहते हैं। मनुष्यादि में जो शारीरिक विभिन्नताएँ और आकृतियों में विविधताएं दिखती हैं, उनका कारण संस्थाननामकर्म है। संस्थाननामकर्म के छह भेदों के नाम क्रमशः ये हैं
(१) समचतुरस्र-संस्थाननामकम, (२) न्यग्रोध-परिमंडल-संस्थान नामकम, (३) सादि-संस्थाननामकर्म, (४) कुब्ज-संस्थाननामकर्म [५: वामन-संस्थाननामकर्म, और ।६. हुंड-संस्थाननामकर्म । इनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं...
(१) सम, चतुः, अस्र, इन तीन शब्दों से निष्पन्न समचतुरस्त्र पद में सम का अर्थ समान, चतुः का अर्थ चार और अस्त्र का अर्थ कोण होता है। अर्थात् पालथी मारकर बैठने में जिस शरीर के चारों कोण समान हों; यानी आसन और कपाल का अन्तर, दोनों घुटनों का अन्तर, दाहिने कंधे और बाय जानु का अन्तर, बाय कंधे और दाहिने जानु का अन्तर समान हो, उसे समचतुरस्त्र कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसे संस्थान की प्राप्ति होती है अथवा सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार जिस शरीर के सम्पूर्ण अवयव शुभ हों, वह समचतुरस्त्र-संस्थान नामकर्म कहलाता है। १. संहनन एवं संस्थान के चित्र परिशिष्ट में देखिए ।