Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रथम कर्मग्रन्थ
११३ है, जब गृहीत एवं गहमाण पुद्गलों का पारस्परिक सामीप्य हो अर्थात् दोनों एक दूसरे के निकट होंगे, तभी बननन होना सम्भव है । अतः शरीर के योग्य पुद्गलों को सन्निहित करना, एक दूसरे के पास व्यवस्थित रूप से स्थापित करना, जिसमे उन पद्गलों की परस्पर में प्रदेशों के अनप्रवेश से एकरूपता प्राप्त हो सके. यह संघातन नामकर्म का कार्य है।
जैसे दन्ताली से इधर-उधर बिखरी घास इकट्ठी की जाती है. जिससे उस घास का गट्ठा बंध जाता है, इसी प्रकार संघातन नामकर्म शरीरयोग्य पुद्गलों को समीप लाता है और बन्धन नामकर्म उन्हें उन-उन शरीरों से सम्बद्ध करता है।
औदारिक आदि पांच शरीरों के नाम के आधार से जैसे बन्धन नामकर्म के पाँच भेद हैं, वैसे ही संघातन' नामकर्म के भी निम्नलिखित पाँच मेद होते हैं
(१) औदारिक-संघातन नामकर्म, २) वैश्यि-संघातन नामकर्म, (३) आहारक-संघातन नामकर्म, १३) तेजस-संघातन नामकर्म और (५) कार्मण-संघातन नामकर्म । इनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं
(१) जिस कर्म के उदय से औदारिकशरीर के रूप में परिणत पुद्गलों का परस्पर सान्निध्य हो, वह औदारिक-संघातननाम है।
(२) जिस कर्म के उदय से वैक्रियशरीर रूप में परिणत पुद्गलों का परस्पर सानिध्य हो, वह वैश्रिय-संघातननाम है ।
(३) जिस कर्म के उदय में आहारकशरीर रूप में परिणत पुद्गलों का परस्पर सान्निध्य हो, वह आहारक संघातननाम है ।
(४) जिस कर्म के उदय से तेजसशरीर रूप में परिणत पुद्गलों का परस्पर सान्निध्य हो, वह तैजस-संघातननाम है ।
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