Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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budd
प्रथम कर्मग्रम्भ
१०६
आहार
कार्मण, औदारित पहला विकल्प बैंकिय लब्धि के समय कुछ मनुष्य और तिर्यंचों में पाया जाता है। दूसरा विकल्प आहारकलब्धि के प्रयोग के समय चतुर्दशपूर्वधारी मुनियों में होना संभव है। किन्तु वैनियलब्धि और आहारकलब्धि का प्रयोग एक साथ सम्भव न होने से पाँचों शरीर एक साथ किसी के भी नहीं होते हैं ।
अब क्रम प्राप्त अंगोपांग नापकर्म के भेदों को बतलाते हैंबाहरु पिट्टि सिर उर उयरंग उवंग अंगुलीपमहा । सेसा अंगोवंगा पढमत शुतिगस्सुवंगाणि ॥ ३४ ॥ गाथार्थ - दो हाथ, दो पैर, एक पीठ, एक सिर, एक छाती और एक पेट ये आठ अंग हैं । अंगुली आदि अंग के साथ जुड़े हुए छोटे अवयव उपांग हैं और शेष अंगोपांग कहलाते हैं । ये अंगादि औदारिकादि प्रथम तीन शरीरों में ही होते हैं । विशेषार्थ नामकर्म की पिण्डप्रकृतियों में से अंगोपांग नामकर्म के भेदों को गाथा में कहा है ।
अंगोपांग शब्द से अंग, उपांग और अंगोपांग इन तीन का ग्रहण होता है । इनमें से अंग के क्रमशः आठ भेद हैं- (१ - २) दो हाथ, ( ३ - ४ ) दो पैर, (५) एक पीठ, (६) एक सिर, (७) एक छाती और (८) एक पेट अंगों के साथ संलग्न अंगुली, नाक, कान आदि छोटेछोटे अवयवों को उपरंग और अंगुलियों की रेखाओं तथा पर्वों को अंगोपांग कहते हैं ।
१ (क) तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्वाऽऽचतुर्भ्यः ।
(ख) पत्र २१
- तत्त्वार्थसूत्र, अ० २. सूत्र ४३