Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मविपाक को पचानेवाला और तेजोलेश्या का साधक शरीर तैजसशरीर कहलाता है। तेजोलेश्या की तरह शीतलेश्या का हेतु भी यही तैजसशरीर होता है। कोई-कोई तपस्वी जो क्रोध से तजोलेश्या के द्वारा दूसरों को नुकसान तथा प्रसन्न होकर शीतल लेश्या के द्वारा लाभ पहुँचाता है यह तैजसशरीर के प्रभाव से ही समझना चाहिए।
५) जिस कर्म मे जीव को कार्मणशरीर की प्राप्ति हो, वह कार्मणशरीर नामकर्म है। ज्ञानावरण आदि कर्मों से बना हुआ शरीर कार्मणशरीर कहलाता है। इसी शरीर के कारण जीव नरकादि गति रूप संसार में जन्म-मरण के चक्कर लगाता रहता है।
तेजस और कार्मण शरीर सब संसारी जीवों के होते हैं और आत्मा के साथ उनका अनादि सम्बन्ध है। ये दोनों शरीर लोक में कहीं भी प्रतिघात नहीं पाते हैं, अर्थात् वज-जैसी कठोर वस्तु भी इन्हें प्रवेश करने से रोक नहीं सकती है। क्योंकि ये अत्यन्त सूक्ष्म हैं और सूक्ष्म वस्तु बिना रुकावट के सर्वत्र प्रवेश पा सकती है। जैसे-लोहपिण्ड में अग्नि । ___ एक साथ एक संसारी जीव में कम-से-कम दो और अधिक-सेअधिक चार शरीर तक हो सकते हैं। पाँच कभी नहीं होते हैं। जब दो होते हैं, तब तंजस और कार्मण, क्योंकि ये दोनों सभी संसारी जीवों के होते हैं। यह स्थिति विग्रहगति में पूर्व शरीर को छोड़कर दूसरी गति के शरीर को प्राप्त करने के लिए होने वाली गति के अन्तराल में पाई जाती है। क्योंकि उस समय अन्य कोई भी शरीर नहीं होता है । जब तीन होते हैं, तब तेजस, कार्मण और औदारिक या तेजस, कार्मण और वैकिय । पहला प्रकार मनुष्य-तियंचों में और दूसरा प्रकार देवनारकों में जन्म से लेकर मरण पर्यन्त पाया जाता है । जब चार होते हैं, तब तैजस, कर्मण, औदारिक और वैक्रिय अथवा तेजस,