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प्रथम कर्मग्रन्थ
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वैक्रियशरीर दो प्रकार के हैं औपपातिक लब्धिप्रत्यय देव और नारकों का वैक्रियशरीर औपपातिक कहलाता है। अर्थात् उनको उन गतियों में जन्म लेने से वंऋियशरीर मिलता है । लब्धिप्रत्यय वैक्रियशरीर मनुष्य और तियंचों को होता है । अर्थात् मनुष्य और तिर्यंच तप आदि के द्वारा प्राप्त शक्तिविशेष से वैक्रियशरीर धारण कर लेते हैं ।
(३) जिस कर्म के उदय से फोन को आहारी न हो, वह आहारकशरीर नामकर्म है। अन्य क्षेत्र ( महाविदेह) में वर्तमान तीथंकरों की ऋद्धिदर्भान, संशय-निवारण करने आदि कारणों से चौदह पूर्वधारी मुनिराज लब्धिविशेष से जो शरीर धारण करते हैं, उसे आहारकशरीर कहते हैं। यह शरीर अति विशुद्ध स्फटिक सा निर्मल, शुभ, व्याघातरहित, अर्थात् न तो स्वयं दूसरे से रुकता है और न दूसरों को रोकने वाला होता है । यह शरीर मनुष्यों को ही प्राप्त होता है। उनमें भी सबको नहीं, केवल चौदह पूर्वधारी मुनिराजों को प्राप्त होता है। अर्थात् जब कभी किसी चतुर्दश पूर्वधारी मुनि को किसी विषय में सन्देह हो और वहाँ सर्वज्ञ का सन्निधान न हो, तब आदारिकशरीर से क्षेत्रान्तर में जाना असम्भव समझकर अपनी विशिष्ट लब्धि के प्रयोग द्वारा एक हस्त प्रमाण शरीर बनाते हैं । जो शुभ पुद्गलजन्य होने से शुभ प्रशस्त उद्देश्य से बनाये जाने के कारण निरवद्य और अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण अव्याघाती होता है । ऐसे शरीर से अन्य क्षेत्र में स्थित सर्वज्ञ के पास पहुँचकर उनसे संदेह का निवारण कर फिर अपने स्थान पर मा जाते हैं। यह कार्य सिर्फ अन्तर्मुहूर्त में हो जाता है ।
(४) जिस कर्म के उदय से तेजसशरीर नामकर्म कहते हैं।
जीव को तेजसशरीर प्राप्त हो, उसे तेजस पुद्गलों से बना हुआ, आहार