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प्रथम कर्मग्रन्थ
गतिनामकर्म के भेव व लक्षण १) नरकगति (२) तिर्यंचगति (३) मनुष्यगति (४) देवगति ।
(१) जिस कर्म के उदय से जीव को ऐसी पर्याय प्राप्त हो कि जिससे यह नारक है, ऐसा कहा जाए, वह नरकमतिनामकर्म है ।
(२) जिस कर्म के उदय से जीव को ऐसी अवस्था प्राप्त हो कि जिससे यह तिर्यच है, ऐसा कहा जाए, वह तिर्यंचगतिनामकर्म है।
(३) जिस कर्म के उदय से जीव को ऐसी अवस्था प्राप्त हो कि जिससे यह मनुष्य है, ऐसा कहा जाय, वह मनुष्यगतिनामकर्म है।
(४) जिस कर्म के उदय से जीव को ऐसी अवस्था प्राप्त हो कि जिससे यह देव है, ऐसा कहा जाये, वह देवगतिनामकर्म है ।
जातिनामकर्म के भेव क लक्षण (१) एकेन्द्रिय जातिनाम, (२) द्वीन्द्रिय जातिनाम, (२) श्रीन्द्रिय जातिनाम, (३) चतुरिन्द्रिय जातिनाम और (५) पंचेन्द्रिय जातिनाम । ये जाति नामकर्म के पाँच भेद हैं।
इन्द्रियों पांच हैं । जिनके नाम क्रमश:-(१) स्पर्शनेन्द्रिय (शरीर) (२) रसनेन्द्रिय (जीभ), (३) घ्राणेन्द्रिय (नाक), (४) चक्षुरिन्द्रिय (आँख) और (५) थोत्रेन्द्रिय (कान) हैं । इन पाँच इन्द्रियों में से स्पर्शनेन्द्रिय पहली और नोवेन्द्रिय पाँचवीं इन्द्रिय है। समस्त संसारी जीवों के स्पर्शनेन्द्रिय तो होती है और उसके अनन्तर क्रमशः रसनेन्द्रिय आदि एक-एक इन्द्रिय श्रोत्रेन्द्रिय तक की वृद्धि से एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त जातिनामकर्म के पाँच भेद होते हैं। इनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार है
(१) जिस कर्म के उदय से जीव को सिर्फ एक इन्द्रिय-स्पर्शन (शरीर) इन्द्रिय प्राप्त हो, उसे एकेन्द्रिय जातिनामकर्म कहते हैं।