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कर्मविपाक
तया १५८ भेद होते हैं, अतः उन सबकी विद्यमानता बतलाने के लिए १५८ प्रकृतियाँ सत्ता की अधिकारिणी मानी जाती हैं ।
सत्ता-अधिकारिणी १५८ कर्मप्रकृतियों की संख्या यह है- ज्ञानावरण की ५, दर्शनावरण की है, वेदनीय की २, मोहनीय की २८, आयु की ४, नामकर्म की १०३, गोत्र की २ और अन्तराय को ५ । इन सबका जोड़ १५८ होता है ।
अपेक्षाभेद से सत्ताधिकारिणी १४८ प्रकृतियों के कहने का कारण यह है कि यदि बन्धन नामकर्म के १५ भेदों के बजाय ५ भेद ही ग्रहण किये जायँ तो १५८ में से बन्धन के १० भेद कम कर देने पर १४८ प्रकृतियाँ सत्तायोग्य मानी जायेंगी ।
इस प्रकार नामकर्म की पिंडप्रकृतियों की संख्या और बन्धादि में प्रकृतियों की संख्या का कथन करने के बाद अब ३३ से ५१ तक की गाथाओं में नामकर्म की पिंप्रकृतियों के भेदों के नाम, लक्षण तथा प्रत्येक प्रकृतियों के लक्षण कहते हैं । निरयतिरिनरसुरगई इगबियतिय चउपणिदिजाइओ । ओरालविउपाहारगतेयकम्मण पण सरीश ||३३||
गाथार्थ – नरकगति, तियंचगति, मनुष्यगति और देवगति ये चार गतिनामकर्म के, एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये पांच जातिनामकर्म के और औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कामंण ये पांच शरीरनामकर्म के भेद हैं ।
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विशेषार्थ नामकर्म की चौदह पिंडप्रकृतियों के नाम व संख्या जो पहले बतला चुके हैं । उसके अनुसार इस गाथा में गति, जाति और शरीरनामकर्म के भेदों के क्रमशः नाम बतलाये हैं ।