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प्रथम कर्मग्रन्थ
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बन्धादि योग्य प्रकृतियों की संख्या कर्मों की बन्छ-अधिकारिणी प्रकृतियाँ १२०, उदय व उदीरणाअधिकारिणी प्रकृतियाँ १२२, और सत्ता अधिकारिणी प्रकृतियाँ
बन्ध-अधिकारिणी १२० प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-ज्ञानावरण की ५, दर्शनावरण की ६, वेदनीय की २, मोहनीय की २६, आयु की ४, नाम की ६७, गोत्र की २ और अन्तराय की ५ । सब मिलाकर ये १२० प्रकृतियाँ होती हैं।
मोहनीय कली २२ प्रतिटों के वय होने का कारण यह है कि मूल रूप से बन्धयोग्य प्रकृति मिथ्यात्वमोहनीय है। सम्यक्त्वमोहनीय
और मिश्रमोहनीय का बन्ध नहीं होता है । क्योंकि जीव द्वारा जो मिथ्यात्वमोहनीय का बन्ध किया जाता है, उसके कुछ पुगलों को जीव अपने सम्यक्त्व गुण के कारण शुद्ध बना लेता है और कुछ पुद्गलों को अर्द्धशुद्ध। इनमें से शुद्ध पुद्गलों को सम्यक्त्वमोहनीय और अर्द्ध शुद्ध पुद्गलों को मिथ (सम्यक्त्वमिथ्यात्व) मोहनीय कहते हैं। अतएव मोहनीयकर्म की २८ प्रकृतियों में से सम्यक्त्वमोहनीय एवं मिश्रमोहनीय इन दो प्रकृतियों को कम करने पर २६ प्रकृतियाँ बन्धयोग्य होती हैं और १२० प्रकृतियाँ बन्ध-अधिकारिणी मानी जाती हैं। __उदय और उदीरणा योग्य १२२ प्रकृतियाँ हैं । क्योंकि बन्धयोग्य कर्मप्रकृतियों में मोहनीयकर्म को जो सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्र मोहनीय ये दो प्रकृतियाँ घटा दी गई थीं, उनको मिला देने से १२२ प्रकृतियाँ उदय और उदीरणा की अधिकारिणी होती हैं ।
सत्ता की अधिकारिणी १५८ अथवा १४८ कर्मप्रकृतियाँ हैं । सत्ता का अर्थ है विद्यमान रहना । ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के सामान्य