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कर्मविपाक
साधारणनाम, (५) अस्थिरनाम, (६) अशुभनाम, (७) दुर्भगनाम, (८) दुःस्वरनाम, (६) अनादेयनाम तथा (१०) अयशः कीर्तिनाम |
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इन बीस प्रकृतियों में से सदशक की प्रकृतियों की गणना पुण्यप्रकृतियों में और स्थावरदशक की प्रकृतियों की गणना पापप्रकृतियों में की जाती है। इन प्रकृतियों के लक्षण ग्रन्थ में आगे कहे जा रहे हैं । इस प्रकार नामकर्म के बयालीस भेदों के नामों का कथन करने के अनन्तर ग्रन्थलाघव की दृष्टि से त्रस आदि इन बीस प्रकृतियों की कतिपय संज्ञाओं (संकेत) को दो गाथाओं द्वारा कहते हैं ।
१.
तसच थिरछषक अथिरक्क सहमतिग धावरच उपकं । सुभगतिगाइविभासा तदाइखाहि पयडीह ॥ २८ ॥ वण्णचउ अगुरुलहुच तसाइतिचउरछक्क मिच्चाई | इय अन्नादि विभासा तयाइ संखाहि पयडोहि ॥ २६ ॥ गाथार्थ - प्रारम्भ होने वाली प्रकृति के नाम सहित आगे की संख्या की पूर्णता तक गिनने से त्रसचतुष्क, स्थिरषट्क, अस्थिरषट्क, सूक्ष्मत्रिक, स्थावरचतुष्क, सुभरात्रिक, वर्ण
सदशक और स्थावरदशक की प्रकृतियों के नाम के लिए देखेंप्रज्ञापना सूत्र उ०२ प २३. सूत्र २६३ का 'तक्षणा मे अ वरणामे ....अजसोकित्तिणामे का अंश
(ख) समवायांग, सम० ४२
(ग) गतिजातिशरीराङ्गराङ्ग निर्माण
संघसंस्थान संहनन वर्णरसरुधूपघातपराधातातपोबलोच्छ् वासविह। योगतयः प्रत्येकशरीरसुभगस्य (शुभमूक्ष्म र्याप्तिस्थिरायशांसिसेराणि
तीयं कृत्वं च ।
स्वार्थसूत्र ८।१२