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प्रथम कर्मग्रन्थ
तस शायर पंज्जत्तं पत्तेय थिरं सुभं च सुभगं च । सुसराइज्ज जसं तसदसगं थावरदसं तु इमं ॥२६॥ थावर सुम अपज्ज साहारण अथिर असुभ दुभगाणि । दुस्सरणा इज्जाजस मिय नामे सेयरा बोसं ॥२७॥ गायार्थ - त्रस, बादर, पर्याप्त प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यशःकोति ये त्रसदशक की दस प्रकृतियाँ हैं और स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अक्षुभ, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय और अयशःकीति ये स्थावरदशक की दस प्रकृतियाँ है । सदशक और स्थावरदशक की उक्त दस-दस प्रकृतियों को जोड़ने से नामकर्म की मोतियों होती है ।
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विशेषार्थ - प्रत्येक प्रकृतियों के अट्ठाइस नामों में से आठ प्रकृतियों के सिवाय शेष रही बीस प्रकृतियों के नाम सदशक और स्थावरदशक के रूप में इन दो गाथाओं में कहे हैं । त्रस से लेकर यश:कीर्ति तक के नामों की संख्या दस होने से उनको सदशक और स्थावर से लेकर अयशःकीतिपर्यन्त नामों के भी दस भेद होने से उनको स्थावरदशक कहते हैं ।
सदशक की दस प्रकृतियों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं-
(१) वसनाम, (२) बादरनाम, (३) पर्याप्तनाम, (४) प्रत्येकनाम, (५) स्थिरनाम, (६) शुभनाम, (७) सुभगनाम (८) सुस्वरनाम, (E) आयनाम और (१०) यशः कीर्तिनाम |
स्थावरदशक की प्रकृतियों के दस नाम ये हैं(१) स्थावरनाम,
(२) सूक्ष्मनाम, (३) अपर्याप्तनाम, (४)