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प्रथम कर्मग्रन्थ
गति-जिसके उदय मे आत्मा मनुष्यादि गतियों में जाए अथवा नारकी, तिर्यच, मनुष्य, देव की पर्याय प्राप्त करता है, उसे मतिनामकर्म कहते हैं।
जाति-जिस कर्म के उदय से जीव स्पर्शन, रसन आदि पत्र इन्द्रियों में क्रमशः एक, दो, तीन, चार, पांच इन्द्रियाँ प्राप्त कर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय कहलाता है, उसे जातिनामकर्म कहते है।
शरीर - जिस कर्म के उदय से जीव के औदारिक, वैक्रिय आदि शरीर बन अथवा औदारिक आदि शरीरों की प्राप्ति हो उमे शरीरनामकर्म कहते हैं। __ अंगोपांग-जिस कर्म के उदय से जीव के अंग-हाथ, पैर, सिर आदि और उपांग-अंगुलि आदि रूप में पुद्गलों का परिणमन होता है, उसे अंगोपांग नामकर्म कहते हैं। ___ बन्धन-जिस कर्म के उदय से पूर्वगृहीत औदारिक आदि शरीर पुद्गलों के साथ नवीन ग्रहण किए जाने वाले पुद्गलों का सम्बन्ध हो, उसे बन्धननामकर्म कहते हैं।
संघात-जिस कर्म के उदय से प्रथम ग्रहण किए हुए शरीर पुद्गलों पर नवीन ग्रहण किए जा रहे शरीर योग्य पुद्गल व्यवस्थित रूप से स्थापित किये जाते हैं, उसे संघात नामकर्म कहते हैं। ___ संहनन--जिस कर्म के उदय मे शरीर में हड्डियों की संधियाँ दृढ़ होती हैं, उसे संहनन नामकर्म कहते हैं।
संस्थान-जिस कर्म के उदय से शरीर के जुदे-जुदे शुभ या अशुभ आकार बनें, उसे संस्थान नामकर्म कहते हैं। ___वर्ण-जिस कर्म के उदय से शरीर में कृष्ण, मौर आदि रंग होते हैं, उसे वर्ण नामकर्म कहते हैं ।